हज़रत हफ़्सा बिन्ते उमर (रज़ि॰अ॰)
परिचय
हज़रत हफ़्सा बिन्ते उमर (रज़ि॰अ॰) उम्महातुल-मुमिनीन (मुमिनों की माँ) में से एक हैं। आप इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि॰अ॰) की बेटी थीं और अपनी दीनी समझ, इबादत और कुरआन से मोहब्बत की वजह से मशहूर रहीं। पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने उनके साथ निकाह किया और उन्हें उम्मुल मोमिनीन का ऊँचा दर्ज़ा मिला।
जन्म और परिवार
- हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) का जन्म मक्का शरीफ़ में लगभग 605 ईस्वी में हुआ।
- आपके वालिद हज़रत उमर बिन ख़त्ताब (रज़ि॰अ॰) इस्लाम के सबसे बहादुर और न्यायप्रिय सहाबी थे।
- वालिदा का नाम ज़ैनब बिन्ते मज़ऊन था।
- हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) का बचपन इस्लामी माहौल में गुज़रा और वह बचपन से ही दीनी तालीम, नमाज़ और इबादत की ओर रुचि रखती थीं।
पहला निकाह
- हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) का पहला निकाह ख़ुनैस बिन हुज़ैफ़ा (रज़ि॰अ॰) से हुआ था।
- ख़ुनैस (रज़ि॰अ॰) नबी ﷺ के क़रीबी सहाबी थे और मक्का से हिजरत करके मदीना पहुँचे।
- उन्होंने बद्र और उहुद की लड़ाइयों में हिस्सा लिया।
- लेकिन उहुद की लड़ाई में लगी चोटों की वजह से उनका इंतक़ाल हो गया।
- इस तरह हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) बहुत कम उम्र में विधवा हो गईं।
पैग़म्बर ﷺ से निकाह
- जब हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) विधवा हुईं तो उनके वालिद हज़रत उमर (रज़ि॰अ॰) ने चाहा कि उनकी बेटी का निकाह किसी नेक और इबादतगुज़ार सहाबी से हो।
- उन्होंने पहले हज़रत अबू बक्र (रज़ि॰अ॰) और फिर हज़रत उस्मान (रज़ि॰अ॰) से बात की, लेकिन दोनों ने खामोशी अख़्तियार की क्योंकि उन्हें पता था कि नबी ﷺ का इरादा हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) से निकाह करने का है।
- आखिरकार पैग़म्बर ﷺ ने हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) से निकाह किया और उन्हें उम्मुल मोमिनीन का दर्ज़ा मिला।
इल्म और इबादत
- हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) अपनी इबादतगुज़ारी और कुरआन से गहरे लगाव की वजह से मशहूर थीं।
- वह बहुत रोज़ा रखतीं और रातों को नमाज़ (तहज्जुद) पढ़ा करतीं।
- पैग़म्बर ﷺ के बाद जब कुरआन को एक जगह जमा किया गया, तो हज़रत अबू बक्र (रज़ि॰अ॰) और फिर हज़रत उमर (रज़ि॰अ॰) ने वह लिखित नुस्ख़ा हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) के पास रखवा दिया।
- बाद में हज़रत उस्मान (रज़ि॰अ॰) ने इसी नुस्ख़े की मदद से पूरे उम्मत के लिए कुरआन की एक जैसी प्रतियाँ तैयार करवाईं।
- इस तरह कुरआन की हिफ़ाज़त में हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) का बहुत बड़ा हिस्सा है।
स्वभाव और खूबियाँ
- हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) तेज़-तर्रार, सच बोलने वाली और बहुत इबादत करने वाली थीं।
- उन्हें कुरआन याद था और उसकी आयतों पर गहरी समझ भी थी।
- वह पैग़म्बर ﷺ से बहुत सवाल करतीं ताकि इस्लामी मसाइल को बेहतर समझ सकें।
- नबी ﷺ उन्हें तालीम देते और वह उसे याद करके दूसरों तक पहुँचातीं।
अहम वाक़ियात
- निकाह की अहमियत – हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) का निकाह यह दिखाता है कि इस्लाम में विधवा औरतों की इज़्ज़त और देखभाल बहुत ज़रूरी है।
- कुरआन का ज़ख़ीरा – उनके पास कुरआन का वह नुस्ख़ा मौजूद था जो बाद में पूरी उम्मत के लिए एक जैसा बनाया गया।
- उम्मुल मोमिनीन का मुक़ाम – क़ुरआन में अल्लाह ने उम्महातुल-मुमिनीन को “मोमिनों की माँ” कहा है, और हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) इस मुक़ाम पर फ़ायज़ हैं।
इन्तक़ाल
- हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) का इंतक़ाल 45 हिजरी (लगभग 665 ईस्वी) में मदीना मुनव्वरा में हुआ।
- उन्हें जन्नतुल-बक़ी क़ब्रिस्तान में दफ़न किया गया।
- इंतक़ाल के वक़्त उनकी उम्र लगभग 60 साल थी।
मुक़ाम और यादगार बातें
- हज़रत हफ़्सा (रज़ि॰अ॰) का सबसे बड़ा मुक़ाम यह है कि कुरआन की हिफ़ाज़त का ज़रिया अल्लाह ने उनके ज़रिये मुहैया कराया।
- वह उम्मुल मोमिनीन थीं और उनकी ज़िन्दगी औरतों के लिए सबक़ है कि इबादत, इल्म और सब्र के साथ इंसान बड़ी से बड़ी आज़माइश का सामना कर सकता है।
- इस्लाम की तारीख़ में उनका नाम हमेशा इज़्ज़त और मोहब्बत के साथ लिया जाता है।
✅ नतीजा
हज़रत हफ़्सा बिन्ते उमर (रज़ि॰अ॰) उम्महातुल-मुमिनीन में से एक महान शख्सियत हैं। उनका किरदार इस्लामी इतिहास का एक रोशन अध्याय है। उन्होंने इबादत, कुरआन से मोहब्बत और इल्म की वजह से वह मुक़ाम पाया जो हर किसी को नसीब नहीं होता। उनकी ज़िन्दगी हमें यह सिखाती है कि सब्र, तक़वा और अल्लाह की किताब से मोहब्बत इंसान को दुनिया और आख़िरत दोनों में ऊँचा दर्ज़ा दिलाती है।