फ़ातिमी खलीफा सल्तनत.

फ़ातिमी खलीफा सल्तनत (909–1171 ई.): इतिहास, विस्तार और महत्व

फ़ातिमी खलीफा सल्तनत इस्लामी इतिहास की एक प्रमुख और प्रभावशाली शिया इस्माइली वंश की सल्तनत थी। यह सल्तनत 909 ई. में उत्तरी अफ्रीका से शुरू हुई और लगभग 262 वर्षों तक मिस्र, उत्तरी अफ्रीका और अरब क्षेत्रों में शासन करती रही। फ़ातिमी खलीफाओं ने राजनीति, धर्म, प्रशासन और संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान दिया और काहिरा के माध्यम से इस्लामिक दुनिया में अपनी पहचान बनाई।

फ़ातिमी सल्तनत की स्थापना

फ़ातिमी वंश का संबंध पैगंबर मुहम्मद के वंशज इस्माइल और हज़रत फातिमा से था। सल्तनत की स्थापना अल-माह्दी बिल्लाह ने 909 ई. में उत्तरी अफ्रीका (आज का ट्यूनीशिया) में की। उन्होंने उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया और फ़ातिमी खलीफा के रूप में शासन किया।

फ़ातिमी सल्तनत का विस्तार

फ़ातिमी सल्तनत ने उत्तरी अफ्रीका से लेकर मिस्र और अरब क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की। प्रमुख क्षेत्र:

  • उत्तरी अफ्रीका: ट्यूनीशिया, एल्जीरिया और मोरक्को के कुछ हिस्से
  • मिस्र: काहिरा और नील घाटी
  • अरब क्षेत्र: सऊदी अरब और लेवेंट क्षेत्रों में राजनीतिक प्रभाव

सल्तनत ने व्यापारिक मार्गों, नील नदी के तटीय क्षेत्रों और भूमध्यसागरीय समुद्री मार्गों पर अपना प्रभाव बढ़ाया।

प्रमुख फ़ातिमी खलीफाएं

1. अल-माह्दी बिल्लाह (909–934 ई.)

फ़ातिमी सल्तनत के संस्थापक। उत्तरी अफ्रीका में सत्ता स्थापित की और इस्लामी प्रशासन और न्याय प्रणाली लागू की।

2. अल-क़ाहीर (934–946 ई.)

सल्तनत के विस्तार में योगदान। मिस्र और लेवेंट क्षेत्रों में सैन्य अभियान।

3. अल-मुस्तन्सिर (1036–1094 ई.)

फ़ातिमी सल्तनत का सबसे लंबा शासन। प्रशासनिक सुधार, सेना का पुनर्गठन और काहिरा में राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र विकसित किया।

4. अल-अज़ीज़ (975–996 ई.)

व्यापारिक और नौसैनिक शक्ति का विकास। मिस्र में नील घाटी और काहिरा का नियंत्रण।

5. अल-हाकिम (996–1021 ई.)

विवादास्पद और प्रभावशाली खलीफा। धार्मिक और सामाजिक नियमों का कड़ाई से पालन। काहिरा और मिस्र में प्रशासनिक सुधार।

प्रशासनिक ढांचा

  • राजधानी: काहिरा (967 ई. में स्थापित)
  • सैन्य प्रशासन: पेशेवर सेना और नौसैनिक शक्ति
  • आर्थिक प्रशासन: कर प्रणाली, ज़कात, व्यापार और कृषि का नियमन
  • प्रशासनिक विभाग: न्याय, लेखा-जोखा और भूमि प्रबंधन

फ़ातिमी खलीफाओं ने शिया धर्म और इस्माइली कानून लागू किया और शासन में धार्मिक नेतृत्व को मजबूत किया।

समाज और धर्म

  • फ़ातिमी मुस्लिम: शासक और अधिकारी
  • सामान्य मुस्लिम: व्यापार, कृषि और सेवा में सक्रिय
  • गैर-मुस्लिम: व्यापार, उद्योग और करदाता

फ़ातिमी खलीफाओं ने धार्मिक सहिष्णुता दिखाई और ईसाई एवं यहूदी समुदायों को संरक्षण दिया।

शिक्षा और विज्ञान

  • अज़हर विश्वविद्यालय (काहिरा): इस्लामिक शिक्षा का प्रमुख केंद्र
  • फिलॉसफी और गणित: इस्माइली विद्वानों का योगदान
  • चिकित्सा और दवा: अस्पताल और चिकित्सा केंद्रों का विकास
  • साहित्य और धर्मग्रंथ: अरबी और फारसी साहित्य का प्रचार

व्यापार और अर्थव्यवस्था

  • भूमध्यसागरीय समुद्री मार्ग: यूरोप और अफ्रीका के साथ व्यापार
  • नदी और जलमार्ग: नील नदी और तटीय मार्गों का विकास
  • सिक्कों और मुद्रा: अर्थव्यवस्था में स्थिरता
  • कृषि और उद्योग: उत्पादन, वस्त्र, धातु और हस्तशिल्प में सुधार

स्थापत्य और कला

  • काहिरा के महल और मस्जिदें
  • अज़हर मस्जिद: शिक्षा और धर्म का केंद्र
  • चित्रकला और मूर्तिकला
  • सिक्कों और मुद्रा पर धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक

फ़ातिमी सल्तनत का पतन

  • आंतरिक विद्रोह और प्रशासनिक अस्थिरता
  • क्रूसियनों और बाहरी आक्रमण
  • शासन में केंद्रीकरण की कमी

1171 ई. में अयूबियों के उदय के साथ फ़ातिमी सल्तनत का अंत हुआ।

फ़ातिमी सल्तनत का महत्व

  • राजनीतिक: उत्तरी अफ्रीका और मिस्र में शासन व्यवस्था
  • धार्मिक: शिया इस्माइली धर्म का प्रचार
  • सांस्कृतिक और बौद्धिक: शिक्षा, कला और विज्ञान में योगदान
  • वैश्विक प्रभाव: भूमध्यसागरीय और अफ्रीकी व्यापारिक नेटवर्क

निष्कर्ष

फ़ातिमी खलीफा सल्तनत (909–1171 ई.) ने इस्लामिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा। फ़ातिमी खलीफाओं के प्रशासन, धार्मिक नीति, शिक्षा और संस्कृति के योगदान ने मिस्र और उत्तरी अफ्रीका में स्थायित्व और समृद्धि प्रदान की। उनकी उपलब्धियाँ आज भी इस्लामी इतिहास में याद की जाती हैं।

अब्बासी सल्तनत..

अब्बासी सल्तनत (750–1258 ईस्वी): इतिहास, विस्तार और महत्व

अब्बासी सल्तनत इस्लामी इतिहास की एक महान और प्रभावशाली सल्तनत थी, जिसने 750 ईस्वी में उम्मयाद सल्तनत का स्थान लिया और लगभग 500 वर्षों तक शासन किया। अब्बासी खलीफाओं ने इस्लामिक साम्राज्य को राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से विकसित किया। इस सल्तनत का शासनकाल इस्लामिक इतिहास में स्वर्ण युग माना जाता है।

अब्बासी सल्तनत की स्थापना

अब्बासी वंश पैगंबर मुहम्मद के चाचा अब्बास इब्न अब्दुल-मुत्तालिब से संबंधित था। अब्बासी विद्रोह के कारण 750 ईस्वी में उम्मयाद सल्तनत का अंत हुआ। अब्बासी खलीफाओं ने बग़दाद को राजधानी बनाया और इसे प्रशासनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित किया।

अब्बासी सल्तनत का विस्तार

अब्बासी खलीफाओं ने इस्लामिक साम्राज्य का विस्तार किया। उनका साम्राज्य तीन महाद्वीपों में फैला:

  • एशिया: फारस (ईरान), अफगानिस्तान, भारत के पश्चिमी क्षेत्र
  • अफ्रीका: मिस्र और उत्तरी अफ्रीका
  • यूरोप: स्पेन के कुछ हिस्सों तक व्यापारिक और सांस्कृतिक प्रभाव

अब्बासी सल्तनत ने सैन्य, प्रशासनिक और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया और स्थानीय प्रशासन को संगठित किया।

मुख्य अब्बासी खलीफाएं

1. अल-सफ़ाह (750–754 ई.)

अब्बासी सल्तनत के संस्थापक, उम्मयाद वंश का अंत किया और सत्ता को केंद्रीकृत किया।

2. अल-मंसूर (754–775 ई.)

बग़दाद की स्थापना (762 ई.), प्रशासनिक और आर्थिक सुधार, सेना और न्याय प्रणाली को मजबूत किया।

3. हारुन अल-रशीद (786–809 ई.)

अब्बासी सल्तनत का स्वर्ण युग। विज्ञान, कला और साहित्य में प्रगति हुई। बग़दाद को दुनिया का सांस्कृतिक और व्यापारिक केंद्र बनाया।

4. अल-मामून (813–833 ई.)

विज्ञान और शिक्षा का विकास। खुरासान विद्रोह का सामना किया और बग़दाद में फारस की सांस्कृतिक छाया को बढ़ाया।

5. आखिरी प्रभावशाली खलीफाएं (9वीं–10वीं शताब्दी)

सल्तनत का विस्तार शिथिल होने लगा। स्थानीय सुल्तानों और अमीरों का उदय हुआ। वास्तविक सत्ता कई बार सैन्य कमांडरों के हाथ में चली गई।

प्रशासनिक व्यवस्था

  • राजधानी: बग़दाद
  • सैन्य प्रशासन: पेशेवर सेना, सीमा सुरक्षा और विद्रोह नियंत्रण
  • आर्थिक प्रशासन: कर प्रणाली, ज़कात और व्यापार का नियमन
  • प्रशासनिक विभाग: न्याय, लेखा-जोखा और भूमि प्रबंधन

समाज और संस्कृति

  • अरब मुस्लिम: शासक और अधिकारी वर्ग
  • मुस्लिम अधिनायक: व्यापार, कृषि और सेना में सक्रिय
  • गैर-मुस्लिम: ज़मीन पर काम करने वाले और करदाता

अब्बासी खलीफाओं ने धार्मिक सहिष्णुता दिखाई और विद्वानों एवं व्यापारियों को संरक्षण दिया।

शिक्षा और विज्ञान

  • हाउस ऑफ़ वीज़डम (बग़दाद): ज्ञान का केंद्र
  • गणित और खगोल विज्ञान: अल-ख्वारिज़्मी का योगदान
  • चिकित्सा: इब्न सिना और रेज़ी के काम
  • साहित्य और कला: अरबी साहित्य, काव्य और स्थापत्य में नवाचार

व्यापार और अर्थव्यवस्था

  • सिल्क रोड: एशिया और यूरोप को जोड़ने वाला मार्ग
  • सिक्कों और मुद्रा का सुधार
  • कृषि और सिंचाई: भूमि उपजाऊ और उत्पादन बढ़ा
  • हस्तशिल्प और उद्योग: वस्त्र, धातु और काष्ठकला का विकास

स्थापत्य और कला

  • बग़दाद के महल और मस्जिदें
  • शाही पुस्तकालय और संग्रहालय
  • चित्रकला और मूर्तिकला में नवाचार

अब्बासी सल्तनत का पतन

  • आंतरिक विद्रोह और सुल्तानों का उदय
  • मंगोलों और अन्य बाहरी आक्रमण
  • शासन के केंद्रीकरण में कमी

1258 ईस्वी में हुलागु खान के मंगोल आक्रमण ने बग़दाद पर कब्जा किया और सल्तनत का अंत हुआ।

अब्बासी सल्तनत का महत्व

  • राजनीतिक: अरब साम्राज्य का केंद्रीकरण और प्रशासनिक सुधार
  • सांस्कृतिक और बौद्धिक: विज्ञान, शिक्षा और कला में प्रगति
  • धार्मिक: इस्लामिक कानून और न्याय प्रणाली का विस्तार
  • वैश्विक प्रभाव: व्यापार और संस्कृति का यूरोप और एशिया में प्रसार

निष्कर्ष

अब्बासी सल्तनत (750–1258 ई.) ने इस्लामी इतिहास में स्वर्ण युग स्थापित किया। इसने प्रशासनिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में अमूल्य योगदान दिया। अब्बासी खलीफाओं के शासन ने इस्लामिक दुनिया को स्थायित्व और समृद्धि प्रदान की। अब्बासी सल्तनत की उपलब्धियाँ आज भी इतिहास और संस्कृति में जीवित हैं।

उम्मयाद सल्तनत…

उम्मयाद सल्तनत (661 ईस्वी के बाद): एक सरल परिचय

उम्मयाद सल्तनत इस्लामी इतिहास की पहली बड़ी वंशानुगत राजवंशीय शासन प्रणाली थी। इसका आरंभ 661 ईस्वी में हुसैन इब्न अली की शहादत के बाद हुआ। उम्मयाद सल्तनत ने इस्लामिक साम्राज्य को विस्तार देने और प्रशासनिक ढांचा मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसे अरबों के पहले बड़े साम्राज्य के रूप में भी देखा जाता है।

उम्मयाद सल्तनत की स्थापना

उम्मयाद वंश का उद्गम मक्का और दामिश्क के आसपास हुआ था। यह वंश पहले कुरीश कबीले का हिस्सा था। मुहम्मद साहब की मृत्यु (632 ई.) के बाद इस्लामिक साम्राज्य का नेतृत्व धीरे-धीरे उनके अनुयायियों और परिवार के सदस्यों ने संभाला। उम्मयाद सल्तनत की स्थापना मुहम्मद के चाचा के बेटे, मुआविया इब्न अबू सुफ़ियान ने की।

मुआविया ने 661 ईस्वी में खलिफ़ा बनकर दामिश्क को राजधानी बनाया। इस समय खलीफा की सत्ता पूरी तरह राजनीतिक और प्रशासनिक रूप में केंद्रीकृत हो गई।

उम्मयाद सल्तनत का विस्तार

उम्मयाद खलीफाओं के काल में इस्लामिक साम्राज्य का विस्तार बहुत तेज़ी से हुआ। यह साम्राज्य तीन महाद्वीपों में फैला:

  1. एशिया: फारस, आज का ईरान, अफगानिस्तान
  2. अफ्रीका: मिस्र और उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्र
  3. यूरोप: स्पेन (अंडालूस) तक

उम्मयाद शासन ने इस्लाम को केवल धर्म तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि एक राजनीतिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में फैलाया।

उम्मयाद खलीफाओं की सूची (मुख्य)

  1. मुआविया इब्न अबू सुफ़ियान (661-680 ई.)
    • दामिश्क में राजधानी स्थापित की
    • प्रशासनिक ढांचे को मजबूत किया
    • बेहतरीन नौसैनिक शक्ति का विकास किया
  2. यज़ीद इब्न मुआविया (680-683 ई.)
    • हुसैन की करबला में शहादत इसी काल में हुई
    • साम्राज्य में आंतरिक संघर्ष और विद्रोह बढ़े
  3. मरवान इब्न मुहम्मद (684-685 ई.)
    • उम्मयाद वंश को पुनः संगठित किया
    • स्थायित्व लौटाने की कोशिश की
  4. अब्दुलमालिक इब्न मरवान (685-705 ई.)
    • आर्थिक सुधार और कर प्रणाली का विकास
    • अरबी भाषा को प्रशासनिक भाषा घोषित किया
  5. वारिस खलीफाएं (705-750 ई.)
    • हिशाम इब्न अब्दुलमालिक और उनकी उत्तराधिकारियों ने यूरोप और अफ्रीका में विजयें प्राप्त की
    • कला, वास्तुकला और संस्कृति का विकास किया

प्रशासनिक व्यवस्था

उम्मयाद सल्तनत की सफलता में केंद्रीकृत प्रशासन का बहुत बड़ा योगदान था। प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं:

  1. राजधानी: दामिश्क
  2. सैनिक प्रशासन: सेनाओं का संगठन और सीमा सुरक्षा
  3. कर प्रणाली: ज़कात और कर संग्रह के लिए नए नियम
  4. सांस्कृतिक एकता: अरबी भाषा और इस्लामी कानून का विस्तार

उम्मयाद सल्तनत में समाज

उम्मयाद साम्राज्य में समाज मुख्य रूप से तीन भागों में बँटा था:

  1. अरब मुस्लिम: शासक और अधिकारी वर्ग
  2. मौलाना और आम मुस्लिम: व्यापार और कृषि में सक्रिय
  3. अस्मानियत और गैर-मुस्लिम: सीमित अधिकार और कर भुगतान

उम्मयादों ने गैर-मुस्लिमों के साथ धार्मिक सहिष्णुता दिखाई, लेकिन उन्हें कर (जिज़िया) देना अनिवार्य था।

कला, संस्कृति और स्थापत्य

उम्मयाद काल में इस्लामिक कला और स्थापत्य को नई ऊँचाई मिली। कुछ महत्वपूर्ण योगदान:

  • दामिश्क की जामा मस्जिद: उम्मयाद स्थापत्य शैली का अद्भुत उदाहरण
  • कुबा और गुफा मस्जिदें: मस्जिद निर्माण में नवाचार
  • सिक्कों में अरबी लिपि: व्यापार और प्रशासन में एकरूपता

उम्मयाद काल ने मुस्लिम और गैर-मुस्लिम कलाओं को मिलाकर सांस्कृतिक मिश्रण को बढ़ावा दिया।

उम्मयाद सल्तनत का पतन

उम्मयाद सल्तनत का अंत 750 ईस्वी में हुआ। इसके पीछे मुख्य कारण थे:

  1. आंतरिक विद्रोह और सत्ता संघर्ष
  2. अधिकारियों और आम जनता में असंतोष
  3. अब्दुल्लाह इब्न मुहम्मद (अब्बासी) द्वारा विद्रोह

पतन के बाद उम्मयाद वंश के कुछ सदस्य स्पेन (अंडालूस) भाग गए और वहाँ कोर्डोबा में एक स्वतंत्र उम्मयाद राज्य की स्थापना की।

उम्मयाद सल्तनत का महत्व

  1. राजनीतिक: अरब साम्राज्य को संगठित और केंद्रीकृत किया
  2. सांस्कृतिक: इस्लामी कला, स्थापत्य और अरबी भाषा का विकास
  3. धार्मिक: इस्लामिक शासन प्रणाली और कानून का विस्तार
  4. वैश्विक प्रभाव: यूरोप और अफ्रीका तक इस्लाम का प्रसार

उम्मयाद सल्तनत ने इस्लामी इतिहास में पहला स्थायी और विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया। इसने बाद के अब्बासी वंश के लिए आधार तैयार किया।

निष्कर्ष

उम्मयाद सल्तनत ने 661 ईस्वी से लेकर 750 ईस्वी तक इस्लामिक दुनिया में शासन किया। यह वंश राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। उम्मयादों ने इस्लामी साम्राज्य का विस्तार किया, प्रशासनिक सुधार लागू किए और कला-संस्कृति को नया रूप दिया। हालांकि आंतरिक संघर्ष और विद्रोहों ने इसे कमजोर किया, लेकिन इसका प्रभाव इतिहास में आज भी स्पष्ट है।

उम्मयाद सल्तनत ने यह दिखाया कि इस्लामिक साम्राज्य केवल धार्मिक रूप से ही नहीं बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी समृद्ध हो सकता है।


मंगोल हमला और जंग-ए-बग़दाद.


मंगोल हमला और जंग-ए-बग़दाद (1258 ईस्वी) – इस्लामी इतिहास का सबसे बड़ा सदमा

इस्लामी इतिहास में कई बार सल्तनतें उभरीं और कई बार गिर गईं। लेकिन एक ऐसा हादसा हुआ जिसने पूरी इस्लामी दुनिया को हिला दिया — यह था 1258 ईस्वी में मंगोलों का बग़दाद पर हमला। इस हमले ने न सिर्फ़ अब्बासी ख़िलाफ़त का अंत किया बल्कि सदियों तक इस्लामी तहज़ीब और इल्म को गहरी चोट पहुँचाई।

आइए इस पूरे वाक़िये को आसान भाषा में विस्तार से समझते हैं।


पृष्ठभूमि : मंगोलों का उभार

  • 13वीं सदी में दुनिया की सबसे खतरनाक और तेज़ी से बढ़ने वाली ताक़त थी मंगोल साम्राज्य
  • मंगोलों का नेता चंगेज़ ख़ान (Genghis Khan, 1162–1227) था जिसने एशिया और यूरोप में खून-खराबे की आंधी चलाई।
  • चंगेज़ ख़ान की मौत के बाद उसकी औलाद ने साम्राज्य को और फैलाया।
  • चंगेज़ के पोते हलाकू ख़ान (Hulagu Khan) को ख़ास मिशन दिया गया:
    1. ईरान और इराक़ पर क़ब्ज़ा करना।
    2. बग़दाद में अब्बासी ख़िलाफ़त को मिटाना।
    3. इस्लामी दुनिया की ताक़त तोड़ना।

अब्बासी ख़िलाफ़त की हालत

  • 750 ईस्वी से अब्बासी ख़िलाफ़त क़ायम थी और बग़दाद उसकी राजधानी था।
  • शुरुआती सदियों में अब्बासी हुकूमत इल्म, फन, और तालीम का मरकज़ बनी।
  • लेकिन 13वीं सदी तक आते-आते अब्बासी ख़लीफ़ा सिर्फ़ नाम के रह गए थे।
  • असली ताक़त दरबार के वज़ीरों और फ़ौजी सरदारों के हाथ में थी।
  • इस वजह से बग़दाद की हुकूमत कमज़ोर और बिखरी हुई थी।

हलाकू ख़ान की तैयारी

  • हलाकू ख़ान ने बहुत बड़ी और मज़बूत फ़ौज इकट्ठी की।
  • कहा जाता है कि उसकी फ़ौज में लाखों सैनिक, घुड़सवार, और इंजीनियर थे।
  • उसने पहले ईरान और आसपास के इलाक़ों को अपने क़ब्ज़े में लिया।
  • फिर उसने नज़रें बग़दाद पर टिकाईं।

बग़दाद पर हमला (1258 ईस्वी)

घेराबंदी

  • जनवरी 1258 में हलाकू ख़ान बग़दाद की तरफ़ बढ़ा।
  • उसने पूरे शहर को चारों तरफ़ से घेर लिया।
  • बग़दाद की फ़ौज बहुत कमज़ोर थी और उनमें जज़्बा भी नहीं था।

धोखा और कमज़ोर ख़िलाफ़त

  • अब्बासी ख़लीफ़ा मुस्तासिम बिल्लाह ने शुरुआत में हलाकू से सुलह की कोशिश की।
  • लेकिन हलाकू ने धोखे से उन्हें यक़ीन दिलाया और फिर अचानक हमला कर दिया।

जंग और तबाही

  • मंगोलों ने बग़दाद की दीवारें तोड़ डालीं।
  • शहर के अंदर घुसकर उन्होंने कत्लेआम शुरू कर दिया।
  • मस्जिदें, मकतब, लाइब्रेरी, और बाज़ार सब जलाकर राख कर दिए गए।
  • कहा जाता है कि लाखों लोग मारे गए।

इल्म और किताबों की बर्बादी

  • बग़दाद उस वक़्त इल्म का समंदर था।
  • यहाँ की मशहूर “बैतु-ल-हिक्मा (House of Wisdom)” में दुनिया भर की किताबें मौजूद थीं।
  • मंगोलों ने इन किताबों को दजला (Tigris River) में फेंक दिया।
  • लिखा है कि नदी का पानी काली स्याही से रंग गया।
  • इस बर्बादी ने इस्लामी दुनिया को सदियों पीछे धकेल दिया।

ख़लीफ़ा का अंत

  • हलाकू ख़ान ने अब्बासी ख़लीफ़ा मुस्तासिम बिल्लाह को पकड़ लिया।
  • उसे बेहद ज़लील तरीके से मौत दी गई।
  • इस तरह 500 साल पुरानी अब्बासी ख़िलाफ़त का बग़दाद में अंत हो गया।

नतीजा और असर

  1. अब्बासी सल्तनत का पतन
    • 1258 ईस्वी में अब्बासी हुकूमत का असली इराक़ वाला हिस्सा ख़त्म हो गया।
    • हालांकि बाद में मिस्र में मामलूक हुकूमत ने एक नामी अब्बासी ख़लीफ़ा बिठाया, लेकिन उसकी हक़ीक़ी ताक़त नहीं थी।
  2. इस्लामी दुनिया का सदमा
    • मुसलमानों को यक़ीन नहीं हुआ कि उनका इल्मी और तहज़ीबी मरकज़ इस तरह मिट जाएगा।
    • इस हादसे ने पूरी उम्मत को हिला दिया।
  3. मंगोलों का डर
    • बग़दाद की तबाही के बाद मंगोलों का ख़ौफ़ पूरी दुनिया में फैल गया।
    • वे आगे शाम (Syria) और मिस्र की तरफ़ बढ़े।
  4. मुसलमानों की वापसी
    • कुछ साल बाद 1260 में ऐन जलूत की जंग (Battle of Ain Jalut) में मामलूक मुसलमानों ने मंगोलों को पहली बड़ी हार दी।
    • लेकिन तब तक बग़दाद बर्बाद हो चुका था।

सबक

  • एक कमज़ोर और बिखरी हुई हुकूमत बड़ी से बड़ी सल्तनत को गिरा सकती है।
  • इल्म और तालीम की अहमियत बहुत बड़ी है, लेकिन अगर उसकी हिफ़ाज़त न हो तो वह मिट सकता है।
  • उम्मत की तफ़रक़ा (फूट) हमेशा बाहरी दुश्मनों को ताक़त देती है।

नतीजा

जंग-ए-बग़दाद (1258 ईस्वी) इस्लामी इतिहास का सबसे बड़ा हादसा माना जाता है।

  • इसने अब्बासी सल्तनत का अंत किया।
  • बग़दाद, जो कभी इल्म और तहज़ीब का मरकज़ था, खंडहर बन गया।
  • लाखों मुसलमानों की जानें गईं और दुनिया का सबसे बड़ा लाइब्रेरी मिट गया।

फिर भी यह हादसा मुसलमानों के लिए सबक बना कि जब तक वे एकजुट रहेंगे और इल्म की हिफ़ाज़त करेंगे, तब तक दुश्मन उन्हें मिटा नहीं सकता।


अब्बासी – उमय्यद जंग (750 ईस्वी).


अब्बासी – उमय्यद जंग (750 ईस्वी) : इस्लामी इतिहास का बड़ा मोड़

इस्लामी इतिहास में कई जंगें और इंक़लाब ऐसे हुए हैं जिनसे पूरी दुनिया की सियासत और तहज़ीब बदल गई। उनमें से एक अहम जंग है अब्बासी – उमय्यद जंग (750 CE)। इस जंग ने न सिर्फ़ उमय्यद सल्तनत का अंत किया, बल्कि अब्बासी ख़िलाफ़त की बुनियाद भी रखी।

यह जंग सिर्फ़ तलवारों की टक्कर नहीं थी, बल्कि इसके पीछे राजनीति, नस्ल, और मज़हबी नाराज़गियाँ भी थीं। आइए इसे आसान भाषा में विस्तार से समझते हैं।


पृष्ठभूमि : उमय्यद सल्तनत की हालत

  • उमय्यद सल्तनत (661–750 ईस्वी) दमिश्क (सीरिया) से चलती थी।
  • उमय्यद ख़लीफ़ाओं ने इस्लामी साम्राज्य को बहुत बड़ा बना दिया था — स्पेन से लेकर भारत की सरहद तक
  • लेकिन इतने बड़े इलाक़े को संभालना आसान नहीं था।
  • कई लोग उमय्यद हुकूमत से नाराज़ थे:
    • अरबी नस्ल को तरजीह दी जाती थी, जबकि ग़ैर-अरब (मावाली) मुसलमान अपने आपको पीछे महसूस करते थे।
    • कुछ इस्लामी परिवार, ख़ासकर हज़रत अली र.अ. की औलाद और उनके समर्थक, उमय्यद से नाख़ुश थे।
    • करों और टैक्स की सख़्ती से भी आम लोग परेशान थे।

इन सब वजहों से उमय्यद सल्तनत के ख़िलाफ़ बग़ावत का माहौल बन गया।


अब्बासी आंदोलन की शुरुआत

  • उमय्यदों के ख़िलाफ़ एक मज़बूत तहरीक खड़ी हुई जिसे अब्बासी आंदोलन कहा जाता है।
  • “अब्बासी” नाम पड़ा क्योंकि यह आंदोलन हज़रत अब्बास इब्न अब्दुल मुत्तलिब (र.अ.), यानी नबी ﷺ के चाचा की नस्ल से जुड़े लोगों के नाम पर चला।
  • यह आंदोलन खास तौर पर ख़ुरासान (आज का ईरान और मध्य एशिया का हिस्सा) से शुरू हुआ।
  • यहाँ के लोग उमय्यदों से ज़्यादा नाख़ुश थे, इसलिए उन्होंने अब्बासियों का साथ दिया।

अबु मुस्लिम ख़ुरासानी

  • अब्बासी आंदोलन के सबसे अहम लीडर थे अबु मुस्लिम ख़ुरासानी
  • उन्होंने ख़ुरासान में लोगों को उमय्यदों के ख़िलाफ़ एकजुट किया।
  • उनके नेतृत्व में अब्बासी फ़ौज बहुत बड़ी और मज़बूत बन गई।

जंग की शुरुआत

  • 747 ईस्वी से अब्बासी आंदोलन ने खुलकर बग़ावत शुरू कर दी।
  • उमय्यद ख़लीफ़ा उस वक़्त मरवान II था।
  • मरवान II बहादुर था, लेकिन हालात उसके खिलाफ़ थे।
  • अबु मुस्लिम और अब्बासी फ़ौजें उमय्यद फ़ौज से टकराने लगीं।

जंग ए ज़ाब (Battle of the Zab, 750 CE)

  • आख़िरकार निर्णायक जंग ज़ाब नदी (Iraq) के किनारे लड़ी गई।
  • इस जंग को “Battle of the Great Zab” भी कहते हैं।
  • उमय्यद ख़लीफ़ा मरवान II ने बड़ी फ़ौज इकट्ठी की।
  • लेकिन अब्बासी फ़ौज में ज़्यादा जोश, संगठन और जनता का साथ था।
  • जंग बहुत सख़्त हुई, लेकिन अब्बासी फ़ौज ने उमय्यदों को शिकस्त दे दी।
  • मरवान II भाग गया, मगर बाद में पकड़ा गया और मारा गया।

नतीजा

  • 750 ईस्वी में उमय्यद सल्तनत का आधिकारिक अंत हो गया।
  • अब्बासी ख़िलाफ़त क़ायम हुई और इसका पहला ख़लीफ़ा बना अबुल अब्बास अल-सफ़्फ़ाह
  • दमिश्क की राजधानी अब बग़दाद (Iraq) में बदल दी गई, जिसे बाद में अब्बासियों ने बहुत शानदार शहर बनाया।

अब्बासी सल्तनत की ख़ास बातें

  1. अब्बासी ख़लीफ़ाओं ने इल्म, फन और साइंस को बहुत बढ़ावा दिया।
  2. बग़दाद उस वक़्त दुनिया का सबसे बड़ा इल्मी और तालीमी मरकज़ बन गया।
  3. ग़ैर-अरब मुसलमानों (ईरानी, तुर्क, आदि) को बराबरी मिली।
  4. इस्लामी दुनिया में गोल्डन एज ऑफ इस्लाम की शुरुआत हुई।

उमय्यद वंश का बच जाना

  • हालांकि उमय्यद सल्तनत ख़त्म हो गई थी, लेकिन एक शहज़ादा अब्दुर्रहमान अल-दाख़िल भागकर अल-अंदलुस (Spain) पहुँच गया।
  • वहाँ उसने नई उमय्यद हुकूमत क़ायम की जो कई सदियों तक चलती रही।
  • इस तरह उमय्यद नाम स्पेन में ज़िंदा रहा, जबकि मशरिक़ में अब्बासियों का दौर शुरू हो गया।

असर और अहमियत

  • यह जंग इस्लामी इतिहास में एक टर्निंग पॉइंट थी।
  • अगर उमय्यद जीतते, तो शायद दमिश्क ही हमेशा इस्लामी दुनिया की राजधानी रहता।
  • लेकिन अब्बासियों की जीत ने इस्लाम को नया दौर दिया, जिसे आज भी लोग इस्लामी सुनहरी दौर (Islamic Golden Age) कहते हैं।
  • इसने साबित कर दिया कि जब लोग एक हुकूमत से तंग आते हैं, तो बड़ी सल्तनत भी गिर सकती है।

सबक

  1. न्याय और बराबरी किसी भी हुकूमत की बुनियाद है। जब यह नहीं मिलता, लोग बग़ावत कर देते हैं।
  2. कुशल नेतृत्व (अबु मुस्लिम ख़ुरासानी और अबुल अब्बास) बड़ी से बड़ी ताक़त को गिरा सकता है।
  3. तहरीक सिर्फ़ तलवार से नहीं, बल्कि लोगों के दिल जीतकर चलती है।

नतीजा

अब्बासी – उमय्यद जंग (750 CE) ने न सिर्फ़ एक सल्तनत का अंत किया, बल्कि एक नए दौर की शुरुआत भी की।

  • उमय्यद दमिश्क में मिट गए, लेकिन स्पेन में ज़िंदा रहे।
  • अब्बासी ख़िलाफ़त ने बग़दाद से इस्लामी दुनिया को इल्म, साइंस और तहज़ीब का तोहफ़ा दिया।
  • यह जंग हमें याद दिलाती है कि इस्लामी इतिहास सिर्फ़ तलवारों की जंग नहीं, बल्कि इंसाफ़ और तालीम की तलाश की भी कहानी है।

जंग तूर (732 ईस्वी)…


जंग तूर (732 ईस्वी) – इस्लामी और यूरोपीय इतिहास का अहम मोड़

इस्लामी इतिहास और यूरोपीय इतिहास में कुछ जंगें ऐसी हैं जिनका असर सदियों तक महसूस किया गया। उन्हीं में से एक है जंग तूर (Battle of Tours)। यह जंग सन 732 ईस्वी में मुसलमानों और यूरोप की फ़्रैंक्स ताक़त के बीच लड़ी गई थी। इसे कभी-कभी जंग पोआतिए (Battle of Poitiers) भी कहा जाता है, क्योंकि यह फ्रांस के शहर पोआतिए के पास हुई थी।

इस जंग को यूरोप में इस तरह याद किया जाता है कि अगर मुसलमान जीत जाते, तो शायद पूरी यूरोप की तहज़ीब बदल जाती। आइए इसे आसान भाषा में समझते हैं।


पृष्ठभूमि

  • मुसलमानों ने 711 ईस्वी में अल-अंदलुस (Spain और Portugal) फ़तह कर लिया था।
  • वहाँ से इस्लामी फ़ौजें धीरे-धीरे फ़्रांस की तरफ़ बढ़ने लगीं।
  • शुरुआती जीतों ने मुसलमानों का हौसला बुलंद किया और वे और आगे बढ़े।
  • उस वक़्त यूरोप छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था और वहाँ की सबसे मज़बूत ताक़त थी फ़्रैंक्स साम्राज्य (Franks Kingdom)
  • फ़्रैंक्स का सेनापति था चार्ल्स मार्टल (Charles Martel)

मुसलमान सेनापति

  • इस जंग में मुसलमान फ़ौज की अगुवाई अब्दुर्रहमान अल-ग़ाफ़िकी (Abdul Rahman al-Ghafiqi) कर रहे थे।
  • वे अंदलुस (Spain) के गवर्नर थे और एक बहादुर व अनुभवी सेनापति माने जाते थे।
  • उन्होंने अपनी फ़ौज के साथ फ्रांस की तरफ़ क़दम बढ़ाया।

जंग का मैदान

  • मुसलमानों की फ़ौज और फ़्रैंक्स की फ़ौज आमने-सामने तूर और पोआतिए के बीच के इलाके में आईं।
  • कहा जाता है कि मुसलमान फ़ौज में लगभग 20,000 से 25,000 सैनिक थे, जबकि फ़्रैंक्स की फ़ौज इससे कहीं बड़ी, करीब 30,000 से 40,000 थी।
  • फ़्रैंक्स के पास भारी पैदल सेना थी, जबकि मुसलमानों के पास तेज़ घुड़सवार और सवार फ़ौज थी।

जंग का आरंभ

  • जंग कई दिनों तक चली।
  • मुसलमान बार-बार अपने घुड़सवार दस्तों से हमला करते रहे।
  • फ़्रैंक्स ने मज़बूत दीवार बनाकर डटे रहना चुना और पैदल सेना को मज़बूत पंक्तियों में खड़ा कर दिया।
  • इस वजह से मुसलमानों के तेज़ घोड़े बार-बार टकराते लेकिन दीवार तोड़ नहीं पाते।

अब्दुर्रहमान की शहादत

  • जंग के दौरान मुसलमानों के सेनापति अब्दुर्रहमान अल-ग़ाफ़िकी शहीद हो गए।
  • यह मुसलमानों के लिए बहुत बड़ा नुकसान था, क्योंकि फ़ौज को दिशा देने वाला उनका नेता चला गया।
  • इसके बाद मुसलमानों की फ़ौज बिखरने लगी।
  • नतीजा यह हुआ कि चार्ल्स मार्टल की फ़ौज ने जीत हासिल की।

नतीजा और असर

  • इस जंग के बाद मुसलमानों की फ़ौज फ्रांस से पीछे हट गई और वे दुबारा वहाँ बड़े पैमाने पर आगे नहीं बढ़ सके।
  • इस वजह से यूरोप के इतिहासकार इसे “Turning Point of European History” कहते हैं।
  • अगर मुसलमान जीत जाते तो शायद फ्रांस, जर्मनी और उत्तरी यूरोप का नक़्शा बदल जाता।
  • कई यूरोपीय किताबों में लिखा गया कि यह जंग यूरोप की “Christian Identity” बचाने वाली जंग थी।

मुसलमानों पर असर

  • अल-अंदलुस (Spain) में मुसलमानों की हुकूमत फिर भी क़ायम रही और अगले कई सौ साल तक जारी रही।
  • लेकिन तूर की हार ने यूरोप में आगे बढ़ने के उनके इरादे को रोक दिया।
  • इसके बाद मुसलमान ज़्यादातर स्पेन और पुर्तगाल तक सीमित रहे।

यूरोप पर असर

  • यूरोप ने इस जंग को अपनी बड़ी जीत माना।
  • चार्ल्स मार्टल को “The Savior of Europe” कहा गया।
  • उसकी इस जीत ने फ़्रैंक्स साम्राज्य को और मज़बूत बना दिया।
  • बाद में उसके परिवार से ही चार्लमेन (Charlemagne) नाम का सम्राट पैदा हुआ जिसने यूरोप को और ताक़तवर बनाया।

इतिहासकारों की राय

  • कुछ इतिहासकार कहते हैं कि तूर की जंग को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है।
  • उनका मानना है कि मुसलमानों का असली मक़सद पूरे यूरोप पर क़ब्ज़ा करना नहीं था, बल्कि सिर्फ़ कुछ हिस्सों को लूटना और ताक़त दिखाना था।
  • लेकिन ज़्यादातर यूरोपीय लेखक इसे यूरोप की सबसे अहम जंग मानते हैं।
  • मुसलमान इतिहासकार इसे एक आम जंग की तरह बताते हैं और कहते हैं कि यह सिर्फ़ एक हार थी, कोई बड़ा मोड़ नहीं।

सबक

जंग तूर हमें यह सिखाती है:

  1. जंग में नेतृत्व (Leadership) की अहमियत बहुत बड़ी होती है। अब्दुर्रहमान की शहादत ने मुसलमानों को हार की तरफ़ धकेल दिया।
  2. एकजुट और मज़बूत फ़ौज बड़े दुश्मन को भी रोक सकती है।
  3. हर जंग का असर सिर्फ़ उस वक़्त पर नहीं बल्कि सदियों तक रहता है।

नतीजा

जंग तूर (732 ईस्वी) सिर्फ़ एक जंग नहीं थी, बल्कि यह यूरोप और इस्लामी दुनिया के लिए एक बड़ा मोड़ साबित हुई।

  • मुसलमानों की आगे बढ़ने की कोशिश यहाँ रुक गई।
  • यूरोप ने अपनी पहचान और ताक़त संभाल ली।
  • अल-अंदलुस फिर भी एक मज़बूत इस्लामी तहज़ीब का मरकज़ बना रहा, लेकिन फ्रांस और उत्तरी यूरोप में इस्लामी असर नहीं बढ़ सका।

इस तरह यह जंग हमें यह याद दिलाती है कि इतिहास की कुछ घटनाएँ दुनिया की दिशा बदल देती हैं।


अल-अंदलुस फ़तह (711 CE).


अल-अंदलुस फ़तह (711 CE) – इस्लामी इतिहास का सुनहरा अध्याय

इस्लामी इतिहास में कई बड़े मोड़ आए हैं, लेकिन उनमें से एक सबसे अहम मोड़ था अल-अंदलुस की फ़तह। यह घटना सन 711 ईस्वी में घटी थी जब मुसलमानों ने यूरोप की ज़मीन पर कदम रखा और एक नया दौर शुरू हुआ। इस फ़तह ने सिर्फ़ राजनीतिक नक़्शा ही नहीं बदला बल्कि इल्म, तहज़ीब, और समाज पर गहरा असर डाला। आइए इसे आसान भाषा में समझते हैं।


पृष्ठभूमि: अल-अंदलुस कहाँ है?

  • अल-अंदलुस उस इलाके को कहा जाता है जिसे आज हम स्पेन और पुर्तगाल के नाम से जानते हैं।
  • 8वीं सदी की शुरुआत में यहाँ विज़िगोथ (Visigoth) नाम की ईसाई हुकूमत थी।
  • उस वक़्त वहाँ राजनीतिक अस्थिरता थी। राजा रोडरिक (Roderic) और उसके विरोधियों के बीच झगड़े चल रहे थे।
  • इस स्थिति ने मुसलमानों के लिए दरवाज़ा खोला कि वे वहाँ अपनी ताक़त दिखाएँ।

फ़तह की शुरुआत

  • उत्तरी अफ्रीका (मोरक्को) में उस समय मुस्लिम गवर्नर मूसा बिन नुसैर (Musa bin Nusayr) तैनात थे।
  • उन्होंने अपने बहादुर सेनापति तारिक़ बिन ज़ियाद को एक छोटी सी फ़ौज के साथ स्पेन भेजा।
  • अप्रैल 711 में तारिक़ लगभग 7,000 सैनिकों के साथ जिब्राल्टर (Gibraltar) पहुँचे।
  • ‘जिब्राल्टर’ दरअसल अरबी शब्द “जबल तारिक़” (यानि “तारिक़ का पहाड़”) से बना है। आज भी ये नाम वहाँ मौजूद है।

जंग-ए-गुआदलते (Battle of Guadalete)

  • जुलाई 711 में सबसे अहम जंग हुई जिसे जंग-ए-गुआदलते कहा जाता है।
  • इस जंग में मुसलमान सेनापति तारिक़ बिन ज़ियाद और ईसाई राजा रोडरिक आमने-सामने हुए।
  • कहा जाता है कि तारिक़ बिन ज़ियाद ने अपनी फ़ौज का हौसला बढ़ाने के लिए जहाज़ जला दिए ताकि वापसी का ख्याल तक न रहे।
  • मुसलमानों ने अल्लाह पर भरोसा करके जंग लड़ी और नतीजा यह हुआ कि राजा रोडरिक हार गया और मारा गया।

तेज़ी से फ़तह

  • गुआदलते की जंग के बाद मुसलमानों ने एक-एक करके कई शहर फ़तह किए।
  • कॉर्डोबा, टोलेडो और सेविल जैसे अहम शहर मुसलमानों के कब्ज़े में आ गए।
  • यह इलाक़ा जल्दी ही इस्लामी सल्तनत का हिस्सा बन गया और यहाँ पर नई तहज़ीब की नींव रखी गई।

अल-अंदलुस की हुकूमत

  • शुरुआती दौर में अल-अंदलुस को उमय्यद ख़िलाफ़त (Damascus) के गवर्नरों के ज़रिये चलाया गया।
  • बाद में जब दमिश्क की उमय्यद ख़िलाफ़त ख़त्म हुई (750 CE), तो अब्दुर्रहमान प्रथम (Abdurrahman I) ने यहाँ स्वतंत्र उमय्यद हुकूमत क़ायम की।
  • इस तरह अल-अंदलुस एक मज़बूत और आज़ाद सल्तनत बन गई।
  • यहाँ लगभग 800 साल तक मुस्लिम हुकूमत रही, जब तक कि 1492 में ग्रेनेडा (Granada) गिरा नहीं।

इल्म और तहज़ीब का दौर

अल-अंदलुस सिर्फ़ जंग और फ़तह की कहानी नहीं है, बल्कि यह इल्म और तालीम का मरकज़ बन गया।

  • कॉर्डोबा उस समय दुनिया के सबसे रोशन शहरों में से एक था।
  • वहाँ बड़ी-बड़ी लाइब्रेरी, मस्जिदें और यूनिवर्सिटियाँ बनीं।
  • फ़लसफ़ा (Philosophy), तिब (Medicine), हंदसा (Mathematics), और इल्म-ए-नजूम (Astronomy) में यहाँ के विद्वान मशहूर हुए।
  • यूरोप के बहुत से लोग यहाँ पढ़ने आते थे।
  • इब्न-ए-रुश्द (Averroes), इब्न-ए-हज़्म, इब्न-ए-खल्दून जैसे नाम इसी तहज़ीब से जुड़े हैं।

अल-अंदलुस का असर यूरोप पर

  • अल-अंदलुस की तहज़ीब ने यूरोप की अंधेरी सदियों (Dark Ages) को रोशन कर दिया।
  • यहाँ से जाने वाली किताबें और तालीम बाद में यूरोप के Renaissance (नवीनीकरण) की बुनियाद बनीं।
  • यूरोप के कई बड़े विद्वानों ने अरबी किताबों का लैटिन में तर्जुमा किया।
  • यह असर सिर्फ़ इल्म तक नहीं रहा बल्कि खान-पान, पहनावा और कला तक पहुँचा।

गिरावट की कहानी

  • धीरे-धीरे ईसाई रियासतों (Reconquista) ने मुसलमानों को पीछे धकेलना शुरू किया।
  • 11वीं सदी के बाद मुसलमानों में आपसी मतभेद बढ़े और छोटी-छोटी रियासतें बन गईं।
  • 1492 में आख़िरी मुस्लिम रियासत ग्रेनेडा भी गिर गई।
  • इस तरह अल-अंदलुस का सुनहरा दौर ख़त्म हो गया।

नतीजा

अल-अंदलुस की फ़तह सिर्फ़ एक जंग नहीं थी, बल्कि यह इंसानी इतिहास की एक बड़ी तहरीक थी।

  • इसने साबित किया कि हौसला, ईमान और इल्म के ज़रिये दुनिया बदली जा सकती है।
  • अल-अंदलुस ने हमें यह सिखाया कि तहज़ीब और तालीम की ताक़त तलवार से भी बड़ी होती है
  • आज भी स्पेन की मस्जिदें, महल और इल्मी निशानियाँ उस दौर की याद दिलाती हैं।

हज़रत सालेह (अलैहिस्सलाम).


हज़रत सालेह (अलैहिस्सलाम) – ऊँटनी का मौजिज़ा और क़ौम-ए-समूद की तबाही

प्रस्तावना

इस्लामी इतिहास में कई नबियों को उनकी क़ौम के लिए ख़ास मौजिज़ा (चमत्कार) दिए गए। उन्हीं में से एक हैं हज़रत सालेह (अलैहिस्सलाम)। अल्लाह तआला ने उन्हें क़ौम-ए-समूद की हिदायत के लिए भेजा। उनकी क़ौम ताक़तवर और ख़ुशहाल थी, लेकिन गुमराही और घमंड में डूबी हुई थी। हज़रत सालेह (अ.स.) की कहानी क़ुरआन करीम में कई बार बयान हुई है और इसमें आज की इंसानियत के लिए भी बड़े सबक़ छुपे हैं।


हज़रत सालेह (अ.स.) का वंश

रिवायतों के मुताबिक़, सालेह (अ.स.) का नसब (वंश) हज़रत नूह (अ.स.) की औलाद से मिलता है। वे अरब के इलाक़े में पैदा हुए और उसी ज़मीन पर अल्लाह ने उन्हें नबूवत दी।


क़ौम-ए-समूद का इलाक़ा

क़ौम-ए-समूद का इलाक़ा आज के सऊदी अरब और जॉर्डन के बीच था, जिसे “हिज्र” कहा जाता है। आज भी वहां उनके घरों और पहाड़ों में बनी इमारतों के निशान मौजूद हैं, जिन्हें लोग “मदाइने-सालेह” कहते हैं।

क़ौम-ए-समूद की ख़ासियतें:

  • वे पहाड़ों को काटकर घर और महल बनाते थे।
  • खेती-बाड़ी और बाग़ात बहुत थी।
  • वे दौलत और ताक़त में मशहूर थे।
  • लेकिन अहंकार और गुमराही में डूब चुके थे।

शिर्क और गुमराही

क़ौम-ए-समूद अल्लाह को छोड़कर बुतों की पूजा करने लगी। वे अपनी ताक़त पर घमंड करते और ग़रीबों को सताते थे। उन्होंने नफ़्स की गुलामी अपनाई और नबियों की तालीम से मुँह मोड़ लिया।


नबूवत और दावत

अल्लाह तआला ने सालेह (अ.स.) को उनकी हिदायत के लिए भेजा। उन्होंने अपनी क़ौम से कहा:

  • “ऐ मेरी क़ौम! सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करो। उसी ने तुम्हें पैदा किया और उसी ने यह ज़मीन बसाई।”
  • “अल्लाह से तौबा करो, वही रहमत देने वाला है।”
  • “तुम्हारे पास अब उसी की तरफ़ से नसीहत आई है।”

सालेह (अ.स.) ने उन्हें शिर्क और गुनाह छोड़ने और तौहीद अपनाने की दावत दी।


क़ौम की ज़िद और चुनौती

क़ौम-ए-समूद ने कहा:

  • “सालेह! हम तुमसे बड़ी उम्मीदें रखते थे, लेकिन तुमने हमें बाप-दादा के तरीक़े से हटाना चाहा।”
  • “अगर तुम सच्चे नबी हो तो कोई चमत्कार दिखाओ।”

उन्होंने मांग की कि पहाड़ से एक जिंदा ऊँटनी निकल आए।


मौजिज़ा – ऊँटनी का ज़ुहूर

अल्लाह ने सालेह (अ.स.) की दुआ क़ुबूल की। पहाड़ फटा और उसमें से एक बड़ी ऊँटनी ज़िन्दा निकल आई।

सालेह (अ.स.) ने कहा:

  • “यह अल्लाह की तरफ़ से निशानी है। इसे छोड़ दो, यह अल्लाह की ऊँटनी है।”
  • “इसे अल्लाह की ज़मीन पर चरने दो।”
  • “इसे कोई तकलीफ़ मत देना, वरना अल्लाह का अजाब आ जाएगा।”

ऊँटनी का मौजिज़ा पूरी क़ौम ने देखा। वह ऊँटनी बारी-बारी से एक दिन पूरा पानी पीती और दूसरे दिन पूरी क़ौम पानी इस्तेमाल करती। यह अल्लाह का करिश्मा था।


क़ौम का इंकार

मौजिज़ा देखने के बावजूद क़ौम-ए-समूद ने ईमान नहीं लाया। उन्होंने कहा:

  • “यह तो जादू है।”
  • “हम इस ऊँटनी की वजह से अपनी मर्ज़ी नहीं छोड़ेंगे।”

आख़िरकार उन्होंने साज़िश करके ऊँटनी को मार डाला।


ऊँटनी की हत्या और सालेह (अ.स.) की चेतावनी

जब उन्होंने ऊँटनी को क़त्ल कर दिया तो सालेह (अ.स.) बहुत ग़ुस्से और ग़म में बोले:

  • “तुम्हें अब अल्लाह का अजाब पकड़ेगा।”
  • “तीन दिन और मौलत है, उसके बाद अजाब आएगा।”

क़ौम-ए-समूद पर अजाब

तीन दिन पूरे होने के बाद आसमान से एक सख़्त चीख़ और ज़ोरदार ज़लज़ला (भूकंप) आया।

क़ुरआन में आया है:

“फिर उन्हें एक जोरदार आवाज़ ने पकड़ लिया, और वे अपने घरों में पड़े लाशों की तरह रह गए।”
(सूरह हूद 67)

पूरी क़ौम तबाह हो गई। उनके आलीशान घर और महल वीरान हो गए।


सालेह (अ.स.) और ईमान वाले सुरक्षित

अल्लाह ने सालेह (अ.स.) और उनके मानने वाले ईमान वालों को बचा लिया। वे लोग उस तबाह हुई क़ौम को छोड़कर आगे बढ़ गए।


क़ुरआन में ज़िक्र

हज़रत सालेह (अ.स.) और क़ौम-ए-समूद का ज़िक्र क़ुरआन की कई सूरहों में आया है:

  • सूरह हूद
  • सूरह अ’राफ़
  • सूरह शुअरा
  • सूरह क़मर
  • सूरह शम्स

हर जगह अल्लाह ने ऊँटनी के मौजिज़े और क़ौम-ए-समूद की तबाही को इंसानियत के लिए सबक़ के तौर पर बयान किया।


सबक़ और सीख

  1. अल्लाह की निशानियों का इंकार मत करो – क़ौम-ए-समूद ने मौजिज़ा देखने के बावजूद इंकार किया और तबाह हो गई।
  2. तकब्बुर और घमंड से बचो – दौलत और ताक़त पर घमंड इंसान को बर्बादी की तरफ़ ले जाता है।
  3. नबी की तालीम मानो – नबियों की नसीहत इंसानियत के लिए रहमत है। उनका इंकार करना अज़ाब को बुलाना है।
  4. अल्लाह की कुदरत पर भरोसा करो – पहाड़ से ऊँटनी का निकलना बताता है कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।
  5. गुनाह की साज़िश का अंजाम – ऊँटनी को क़त्ल करने वाले कुछ लोग थे, लेकिन अजाब पूरी क़ौम पर आया। इससे सबक़ मिलता है कि गुनाह की साज़िश को सहारा देना भी बर्बादी का रास्ता है।

वफ़ात

इतिहासकार बताते हैं कि हज़रत सालेह (अ.स.) की वफ़ात हिजाज़ (सऊदी अरब) के इलाके में हुई। उनकी सही क़ब्र कहाँ है, इसका इल्म सिर्फ़ अल्लाह को है।


निष्कर्ष

हज़रत सालेह (अलैहिस्सलाम) की ज़िन्दगी हमें तौहीद, सब्र और अल्लाह की निशानियों का सम्मान करना सिखाती है। उनकी क़ौम ताक़तवर और दौलतमंद थी, लेकिन अहंकार और नाफ़रमानी ने उन्हें तबाह कर दिया।

क़ौम-ए-समूद की कहानी क़ुरआन में बार-बार इसलिए आई है ताकि इंसानियत सबक़ ले और समझे कि अल्लाह की नाफ़रमानी करने वाली क़ौमें कभी बच नहीं सकतीं।


हज़रत हूद (अ.स.).


हज़रत हूद (अलैहिस्सलाम) – अहंकार के खिलाफ़ अल्लाह का पैग़ाम

प्रस्तावना

इस्लामी इतिहास में जिन नबियों का ज़िक्र बार-बार होता है, उनमें से एक हैं हज़रत हूद (अलैहिस्सलाम)। अल्लाह तआला ने उन्हें क़ौम-ए-आद की हिदायत के लिए भेजा। उनकी क़ौम ताक़तवर, दौलतमंद और अहंकारी थी, लेकिन अल्लाह को भूल चुकी थी। क़ुरआन करीम में कई जगह हज़रत हूद (अ.स.) और उनकी क़ौम का तफ़सीली ज़िक्र मिलता है।


हज़रत हूद (अ.स.) का वंश

रिवायतों के मुताबिक़, हज़रत हूद (अ.स.) का नसब (वंश) नूह (अ.स.) के बेटे साम से मिलता है। इस तरह वे नूह (अ.स.) की औलाद में से थे।


क़ौम-ए-आद का हाल

हज़रत हूद (अ.स.) की क़ौम का नाम था आद। यह लोग अरब के यमन इलाके में रहते थे, जिसे अहक़ाफ़ (रेत के टीलों वाला इलाक़ा) कहा जाता था।

क़ौम-ए-आद की ख़ासियतें:

  • ये लोग जिस्मानी तौर पर बहुत मज़बूत और लंबे-चौड़े थे।
  • उन्होंने ऊँचे-ऊँचे महल और क़िले बनाए।
  • उनकी खेती-बाड़ी और बाग़ात बहुत आलीशान थे।
  • वे अपनी ताक़त और दौलत पर घमंड करते थे।

लेकिन इनके अंदर घमंड और ज़ुल्म बढ़ गया। वे अल्लाह की इबादत छोड़कर बुत-परस्ती करने लगे। ग़रीबों और कमज़ोरों को सताते थे।


नबूवत और दावत

अल्लाह तआला ने हूद (अ.स.) को नबूवत देकर आद की तरफ़ भेजा। उन्होंने अपनी क़ौम से कहा:

  • “ऐ मेरी क़ौम! अल्लाह की इबादत करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं।”
  • “तुम्हें झूठ बोलने और घमंड करने की ज़रूरत नहीं।”
  • “अल्लाह से तौबा करो और उसकी रहमत तलाश करो।”

हूद (अ.स.) ने अपनी क़ौम को बार-बार समझाया कि ताक़त और दौलत पर घमंड करना बेकार है। असली ताक़त अल्लाह की है।


क़ौम की जिद और जवाब

लेकिन क़ौम-ए-आद ने हूद (अ.स.) की बात मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा:

  • “तुम हमारी तरह इंसान हो, तुम्हें क्यों माना जाए?”
  • “अगर अल्लाह चाहता तो कोई फ़रिश्ता भेजता।”
  • “हम तो अपने बाप-दादा के तरीक़े पर हैं।”
  • “तुम हमें डराने आए हो कि अजाब आएगा? हम तो मानते ही नहीं।”

उन्होंने हूद (अ.स.) का मज़ाक उड़ाया और कहा कि शायद तुम पर किसी बुत का असर हो गया है।


हूद (अ.स.) का सब्र

हूद (अ.स.) ने सब्र और हिकमत से जवाब दिया:

  • “मैं कोई मज़दूरी नहीं माँगता, मेरा अज्र (इनाम) सिर्फ़ अल्लाह के पास है।”
  • “मैं वही पैग़ाम पहुँचा रहा हूँ जो अल्लाह ने मुझे दिया है।”
  • “अगर तुम न मानोगे तो अल्लाह का अजाब तुम्हें पकड़ लेगा।”

अजाब की चेतावनी

हूद (अ.स.) ने बार-बार अपनी क़ौम को आगाह किया कि अल्लाह का अजाब नज़दीक है। उन्होंने कहा कि अगर तुम तौबा कर लो तो अल्लाह तुम्हें और दौलत देगा, बारिश और रहमत बरसाएगा।

लेकिन क़ौम-ए-आद ने और भी घमंड किया और कहा:

  • “कौन है जो हमसे ताक़तवर हो?”

क़ौम-ए-आद पर अजाब

जब क़ौम ने न मानने की ज़िद कर ली तो अल्लाह का अजाब आया।

पहले उनकी ज़मीन पर सख़्त क़हत (सूखा) पड़ा। कई साल तक बारिश बंद हो गई। उनके बाग़ात सूख गए।

फिर एक दिन काले बादल दिखाई दिए। उन्होंने समझा कि अब बारिश होगी। लेकिन वह बादल रहमत का नहीं, अजाब का था।

अल्लाह ने उस बादल से तेज़ आंधी और तूफ़ान भेजा। यह आँधी सात रात और आठ दिन लगातार चलती रही।

क़ुरआन में आता है:

“वह हवा उनको ऐसे गिराती थी जैसे वे खोखले खजूर के तनों की तरह हो गए हों।”
(सूरह हाक़्क़ा 7)

पूरी क़ौम-ए-आद तबाह हो गई। उनके महल, बाग़ात और सब कुछ बर्बाद हो गया।


हूद (अ.स.) और उनके साथी सुरक्षित

अल्लाह ने हूद (अ.स.) और उनके साथ के ईमान वालों को इस अजाब से बचा लिया। वे लोग हिजरत करके दूसरी जगह चले गए और अल्लाह की इबादत में लगे रहे।


क़ुरआन में ज़िक्र

हज़रत हूद (अ.स.) का ज़िक्र क़ुरआन की कई सूरहों में आया है:

  • सूरह हूद
  • सूरह अ’राफ़
  • सूरह हाक़्क़ा
  • सूरह अहक़ाफ़
  • सूरह फज्र

हर जगह उनकी दावत, क़ौम की ज़िद और अजाब का ज़िक्र मिलता है।


सबक़ और सीख

हज़रत हूद (अ.स.) और उनकी क़ौम की कहानी से हमें कई सबक़ मिलते हैं:

  1. तौहीद (एक अल्लाह की इबादत) – ताक़त और दौलत इंसान को घमंड में डाल सकती है, लेकिन असली मालिक अल्लाह है।
  2. तकब्बुर की बुराई – क़ौम-ए-आद ने अपनी ताक़त पर घमंड किया और अल्लाह को भूल गए, नतीजा तबाही था।
  3. नबी की इज्ज़त – जो लोग नबियों का मज़ाक उड़ाते हैं, उनका अंजाम हमेशा बुरा होता है।
  4. सब्र और हिकमत – हूद (अ.स.) ने सब्र से अपनी क़ौम को दावत दी, यह दाईयों (इस्लामी दावत देने वालों) के लिए मिसाल है।
  5. अल्लाह की रहमत और अजाब – अल्लाह रहमत वाला भी है, अगर इंसान तौबा करे तो माफ़ करता है, लेकिन अगर ज़िद करे तो अजाब भेजता है।

हूद (अ.स.) की वफ़ात

इतिहासकार बताते हैं कि हूद (अ.स.) की वफ़ात यमन के इलाके में हुई। कुछ कहते हैं कि उनकी क़ब्र हज़रत आयुब (अ.स.) के क़रीब है, जबकि कुछ राय है कि उनकी क़ब्र हिजाज़ में है। सही इल्म सिर्फ़ अल्लाह को है।


निष्कर्ष

हज़रत हूद (अलैहिस्सलाम) की कहानी इंसानियत के लिए बड़ा सबक़ है। उनकी क़ौम ताक़तवर और दौलतमंद थी, लेकिन अल्लाह की नाफ़रमानी और घमंड की वजह से तबाह हो गई।

हूद (अ.स.) की दावत हमें सिखाती है कि अल्लाह की इबादत ही असली रास्ता है। घमंड और शिर्क इंसान को बर्बादी की तरफ़ ले जाते हैं।

क़ौम-ए-आद का अंजाम इस बात की गवाही है कि चाहे कितनी भी ताक़त और दौलत हो, अगर इंसान अल्लाह को भूल जाए तो उसका अंजाम तबाही है।


हज़रत नूह (अ.स.).


हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) – सब्र और दावत के पैग़म्बर

प्रस्तावना

इस्लामी इतिहास में कुछ नबियों का ज़िक्र बार-बार आता है। इनमें से एक हैं हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम)। क़ुरआन करीम में उनकी कहानी विस्तार से बयान की गई है। उन्हें “उलुल-अज़्म” यानी बड़े अज़्म (दृढ़ता) वाले नबियों में से माना गया है। उनकी ज़िन्दगी सब्र, दावत, और अल्लाह पर भरोसे की बेहतरीन मिसाल है।


नूह (अ.स.) का वंश और जन्म

हज़रत नूह (अ.स.) का ताल्लुक़ हज़रत इदरीस (अ.स.) की नस्ल से था। वे आदम (अ.स.) की औलाद में से थे और उनकी पैदाइश आदम (अ.स.) के बाद कई पीढ़ियों में हुई।

उनका नाम “नूह” इस वजह से मशहूर है कि वे अल्लाह से दुआओं और तौबा में बहुत रोया करते थे।


पैग़म्बरी का आग़ाज़

उस ज़माने में लोग धीरे-धीरे अल्लाह की इबादत छोड़कर बुत-परस्ती (मूर्तिपूजा) करने लगे थे। उन्होंने इंसानी औलाद में पैदा हुए नेक लोगों की याद में मूर्तियाँ बना लीं और फिर उनकी इबादत शुरू कर दी।

अल्लाह तआला ने नूह (अ.स.) को नबूवत देकर भेजा। उन्होंने अपनी क़ौम को बुलाया:

  • सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करो।
  • किसी को उसका शरीक मत ठहराओ।
  • गुनाह छोड़ो और तौबा करो।
  • अल्लाह की रहमत और मग़फ़िरत हासिल करो।

दावत का सफ़र – 950 साल का सब्र

क़ुरआन में आया है कि नूह (अ.स.) ने अपनी क़ौम को 950 साल तक दावत दी। दिन-रात, खुले और छुपे, हर तरीक़े से उन्होंने लोगों को समझाया।

लेकिन उनकी क़ौम ने उनका मज़ाक उड़ाया, गालियाँ दीं, पत्थर मारे और उन पर ज़ुल्म ढाया। इसके बावजूद नूह (अ.स.) सब्र करते रहे और अपनी दावत को जारी रखा।

उनकी क़ौम ने कहा:

  • “तुम तो हमारी तरह इंसान हो।”
  • “अगर अल्लाह चाहता तो फ़रिश्ता भेजता।”
  • “हमने तुम्हें झूठा पाया।”

नाव (सफ़ीना) बनाने का हुक्म

जब क़ौम ने न मानने की ज़िद पकड़ ली तो अल्लाह तआला ने नूह (अ.स.) से फ़रमाया कि अब उनकी दावत का काम पूरा हुआ। अब उनकी क़ौम पर अजाब (सज़ा) आएगा।

अल्लाह ने हुक्म दिया:

“हमारी देख-रेख और हुक्म से एक जहाज़ (सफ़ीना) बनाओ।”
(क़ुरआन, सूरह हूद 37)

नूह (अ.स.) ने लकड़ियों से बड़ी नाव बनानी शुरू की। लोग मज़ाक उड़ाते और कहते: “पहाड़ पर नाव क्यों बना रहे हो?” लेकिन नूह (अ.स.) ने सब्र से काम लिया।


तुफ़ान-ए-नूह

जब जहाज़ तैयार हो गया, अल्लाह ने नूह (अ.स.) को हुक्म दिया कि अपने मानने वालों और हर जानवर के नर-मादा जोड़े को उसमें बिठा लो।

फिर अल्लाह का अजाब आया:

  • आसमान से पानी बरसा।
  • ज़मीन से चश्मे फूट पड़े।
  • हर तरफ़ पानी ही पानी हो गया।

इतना बड़ा तूफ़ान आया कि पूरी धरती पानी से भर गई। सिर्फ़ वे लोग बचे जो नूह (अ.स.) की नाव में सवार थे।


नूह (अ.स.) का बेटा

नूह (अ.स.) का एक बेटा जहाज़ में सवार नहीं हुआ। उसने कहा: “मैं पहाड़ पर चढ़कर बच जाऊँगा।” नूह (अ.स.) ने उसे पुकारा, लेकिन उसने इंकार कर दिया और लहरों में डूब गया।

इससे यह सबक़ मिलता है कि नबी का बेटा होना भी ईमान की गारंटी नहीं है। अल्लाह के सामने सिर्फ़ ईमान और नेक अमल ही काम आते हैं।


तूफ़ान के बाद

जब पानी उतर गया तो जहाज़ जूदी पहाड़ (इराक़ की तरफ़) पर ठहर गया। नूह (अ.स.) और उनके साथ के लोग सुरक्षित बाहर निकले। यही लोग आगे चलकर इंसानियत की नस्ल बने।

इसलिए नूह (अ.स.) को “आदम-ए-सानी” (दूसरे आदम) भी कहा जाता है।


क़ुरआन में हज़रत नूह (अ.स.) का ज़िक्र

क़ुरआन करीम में नूह (अ.स.) का नाम कई बार आया है। उनके नाम पर एक पूरी सूरह है – सूरह नूह

उनकी दुआ भी मशहूर है:

“ऐ मेरे रब, मुझे और मेरे वालिदैन को, और जो ईमान वाले मेरे घर में दाख़िल हों, सबको बख़्श दे।”
(सूरह नूह 28)


उनकी दावत की ख़ास बातें

  1. नूह (अ.स.) ने हमेशा नर्मी और रहमत के साथ बुलाया।
  2. उन्होंने अपनी क़ौम को अल्लाह की रहमत और मग़फ़िरत की खुशख़बरी दी।
  3. उन्होंने डर भी दिलाया कि अगर न माने तो अजाब आएगा।
  4. उन्होंने कभी हार नहीं मानी, 950 साल तक लगातार सब्र किया।

उनकी क़ौम का अंजाम

क़ुरआन बताता है कि नूह (अ.स.) की क़ौम ने झुठलाया, इसलिए उन्हें डुबो दिया गया। उनकी मिसाल उन लोगों के लिए सबक़ है जो नबियों की बात नहीं मानते।


सबक़ और सीख

हज़रत नूह (अ.स.) की ज़िन्दगी से हमें कई अहम बातें मिलती हैं:

  1. सब्र और इस्तिक़ामत – 950 साल तक बिना थके दावत देना इंसानियत के लिए बेहतरीन मिसाल है।
  2. अल्लाह पर भरोसा – नाव बनाते वक़्त लोग मज़ाक उड़ाते रहे, लेकिन नूह (अ.स.) अल्लाह पर यक़ीन रखते रहे।
  3. ईमान की अहमियत – नबी का बेटा भी अगर ईमान न लाए तो नजात (बचाव) नहीं पा सकता।
  4. अल्लाह की रहमत और अजाब – जो मानते हैं उन्हें रहमत मिलती है, और जो इंकार करते हैं उन्हें सख़्त सज़ा मिलती है।
  5. नेकी की दावत – हर इंसान की ज़िम्मेदारी है कि अपने घर, समाज और क़ौम को अल्लाह की तरफ़ बुलाए।

नूह (अ.स.) की दुआएँ

नूह (अ.स.) की दुआएँ क़ुरआन में दर्ज हैं। उनकी दुआ हमें तौबा और मग़फ़िरत का पैग़ाम देती है:

“ऐ मेरे रब, मुझे माफ़ कर, मेरे वालिदैन को माफ़ कर, और सभी ईमान वालों को माफ़ कर।”
(सूरह नूह 28)


वफ़ात

रिवायतों के मुताबिक़ नूह (अ.स.) ने बहुत लंबी उम्र पाई। कुछ कहते हैं कि उन्होंने 950 साल तक दावत दी और कुल उम्र 1000 साल से ज़्यादा रही। उनकी वफ़ात के बाद भी इंसानियत के लिए नबियों का सिलसिला जारी रहा।


निष्कर्ष

हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम) की ज़िन्दगी इंसानियत के लिए एक बड़ा सबक़ है। वे सब्र, दावत और अल्लाह पर भरोसे की मिसाल हैं। उनकी क़ौम की तबाही हमें याद दिलाती है कि अल्लाह की बात मानना ही नजात का रास्ता है।

नूह (अ.स.) का तुफ़ान हमें सिखाता है कि दुनिया चाहे कितना मज़ाक उड़ाए, अल्लाह के हुक्म और नबी की दावत ही हक़ है।