हज़रत सऊदा बिन्ते ज़मआ (रज़ियल्लाहु अन्हा)

इस्लाम के इतिहास में जिन महान हस्तियों ने अपना जीवन अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की मोहब्बत में गुज़ार दिया, उनमें उम्महातुल मोमिनीन (मोमिनों की माताएँ) का बहुत ऊँचा स्थान है। इन्हीं में से एक थीं हज़रत सऊदा बिन्ते ज़मआ (रज़ियल्लाहु अन्हा)। उनका नाम इस्लाम की पहली महिलाओं में लिया जाता है, जिन्होंने कठिन हालात के बावजूद ईमान की राह को चुना और पूरी ज़िंदगी रसूलुल्लाह ﷺ के साथ वफ़ादारी और ईमानदारी से गुज़ारी।


जन्म और खानदान

हज़रत सऊदा (र.अ.) का जन्म मक्का मुअज़्ज़मा में हुआ था। उनके वालिद का नाम ज़मआ बिन क़ैस और वालिदा का नाम शम्सा बिन्ते क़ैस था। वह क़ुरैश क़बीले से ताल्लुक़ रखती थीं, जो अरब का मशहूर और असरदार क़बीला था।

उनका घराना क़ुरैश के उन घरों में गिना जाता था जो अरब समाज में इज़्ज़त और ओहदे वाले थे।


पहला निकाह और ईमान की राह

सऊदा (र.अ.) का पहला निकाह सकरान बिन अम्र (र.अ.) से हुआ। सकरान (र.अ.) उन शुरुआती लोगों में से थे जिन्होंने इस्लाम कबूल किया। जब हज़रत मुहम्मद ﷺ ने पैग़म्बरी का ऐलान किया तो सऊदा (र.अ.) और उनके शौहर ने बिना किसी झिझक के ईमान ले लिया।

लेकिन उस दौर में मुसलमान होना आसान नहीं था। क़ुरैश के लोग नए मुसलमानों को तरह-तरह की तकलीफ़ें देते थे। इसी वजह से सऊदा (र.अ.) और उनके शौहर ने हिजरत-ए-हबशा (अबिसीनिया की हिजरत) की। वहाँ कुछ समय रहने के बाद वह मक्का वापस लौट आए।


शौहर का इंतिक़ाल

मक्का लौटने के बाद कुछ ही समय में उनके शौहर सकरान (र.अ.) का इंतिक़ाल हो गया। इस तरह सऊदा (र.अ.) विधवा हो गईं। उस दौर में विधवा होना बहुत कठिन था, क्योंकि अरब समाज में अकेली औरत को सहारा नहीं मिलता था।

यही वह समय था जब अल्लाह ने उनकी तक़दीर में एक बड़ी इज़्ज़त लिखी।


रसूलुल्लाह ﷺ से निकाह

हज़रत ख़दीजा (र.अ.) के इंतिक़ाल के बाद रसूलुल्लाह ﷺ बहुत ग़मगीन रहने लगे। वह दौर इस्लामी दावत का सबसे कठिन वक़्त था। ऐसे में आप ﷺ को एक ऐसी बीवी की ज़रूरत थी जो घर की ज़िम्मेदारियों को सम्भाल सके और बच्चियों (रसूल ﷺ की बेटियों) की परवरिश कर सके।

इसी दौरान सऊदा (र.अ.) का निकाह रसूलुल्लाह ﷺ से हुआ। निकाह का ऐलान मक्का ही में हुआ और सऊदा (र.अ.) को “उम्महातुल मोमिनीन” का दर्जा मिला।


सादगी और वफ़ादारी

सऊदा (र.अ.) का स्वभाव बहुत सादा, सीधा और नेक था। वह बड़ी उमर की थीं, लेकिन दिल से बहुत पाक और साफ़ थी। वह रसूलुल्लाह ﷺ से बेहद मोहब्बत करतीं और उनकी हर बात पर अमल करतीं।

उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी सख़ावत (दारिया दिली) और वफ़ादारी थी। वह अपनी ज़िंदगी बहुत सादगी से गुज़ारतीं, किसी तरह की दुनियावी आरज़ू न रखतीं।


रसूलुल्लाह ﷺ के घर में किरदार

सऊदा (र.अ.) ने रसूलुल्लाह ﷺ के घर में बेटियों की परवरिश की। हज़रत फ़ातिमा (र.अ.) और उनकी बहनों से वह सगी माँ जैसी मोहब्बत करती थीं।

सऊदा (र.अ.) अक्सर घर के कामों में लगी रहतीं। उनकी आदत थी कि जो चीज़ मिलती, उसका कुछ हिस्सा अपने पास रखतीं और बाक़ी अल्लाह की राह में बाँट देतीं।


एक अहम वाक़िया

सऊदा (र.अ.) के बारे में किताबों में आता है कि जब रसूलुल्लाह ﷺ ने अपनी एक बीवी से जुदाई का इरादा किया, तो सऊदा (र.अ.) ने अर्ज़ किया:

“ऐ अल्लाह के रसूल ﷺ! मुझे अपनी बीवियों में से रहने दीजिए। मुझे दुनियावी चीज़ों की चाह नहीं। बस मैं चाहती हूँ कि क़ियामत के दिन मुझे भी आपकी बीवीयों में लिखा जाए।”

उनकी इस मोहब्बत और वफ़ादारी की वजह से रसूलुल्लाह ﷺ ने उन्हें अपनी निकाह में बनाए रखा।


हज और इबादत

सऊदा (र.अ.) इबादतगुज़ार औरत थीं। वह अक्सर रोज़ा रखतीं और नमाज़ों में लगी रहतीं। हज और उमरा अदा किया और हमेशा दूसरों को भी नेक कामों की तरग़ीब देतीं।


आख़िरी ज़िंदगी और इंतिक़ाल

हज़रत सऊदा (र.अ.) ने अपनी आख़िरी ज़िंदगी मदीना मुनव्वरा में गुज़ारी। वह अक्सर घर पर रहतीं और ज़्यादा बाहर नहीं निकलतीं। उनकी ज़िंदगी पूरी तरह सादगी और इबादत में बीती।

उनका इंतिक़ाल हज़रत उमर (र.अ.) के दौर-ए-ख़िलाफ़त (लगभग 22 हिजरी) में हुआ। उन्हें जन्नतुल बक़ी कब्रिस्तान में दफ़न किया गया।


उनकी ज़िंदगी से सबक़

हज़रत सऊदा (र.अ.) की ज़िंदगी हमें यह सिखाती है:

  • ईमान के लिए हर क़ुरबानी देनी चाहिए।
  • दुनियावी शोहरत और आरज़ू से ऊपर उठकर अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की मोहब्बत करनी चाहिए।
  • सादगी, वफ़ादारी और दूसरों की ख़िदमत ही असली नेकी है।

नतीजा

हज़रत सऊदा बिन्ते ज़मआ (रज़ियल्लाहु अन्हा) का नाम इस्लामी इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। वह सिर्फ़ रसूलुल्लाह ﷺ की बीवी ही नहीं, बल्कि उम्महातुल मोमिनीन में से एक थीं। उनकी ज़िंदगी और उनकी मोहब्बत, हर मुसलमान के लिए एक बड़ी मिसाल है।