हज़रत उम्मे कुलसूम बिन्ते मुहम्मद (रज़ियल्लाहु अन्हा).

जन्म: ज़ैनब और रुकय्या (र.अ.) के बाद
शौहर: हज़रत उस्मान बिन अफ़्फ़ान (र.अ.) (रुकय्या के इंतिक़ाल के बाद)

उम्मे कुलसूम (र.अ.) ने अपने पिता और इस्लाम के लिए बहुत सब्र किया।
रुकय्या (र.अ.) के इंतिक़ाल के बाद नबी ﷺ ने उनका निकाह हज़रत उस्मान (र.अ.) से कर दिया।
इस वजह से हज़रत उस्मान (र.अ.) को “ज़ुन-नूरैन” (दो नूरों वाला) कहा गया — क्योंकि उन्होंने नबी ﷺ की दो बेटियों से निकाह किया था।

उनका इंतिक़ाल 9 हिजरी में हुआ और नबी ﷺ ने उनकी क़ब्र में खुद उतरकर दफ़न किया।

हज़रत उम्मे कुलसूम (र.अ.)
रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तीसरी साहबज़ादी थीं। इनकी माता हज़रत सैयदा खदीजा (र.अ.) थीं। अधिकतर किताबों में लिखा है कि हज़रत उम्मे कुलसूम की पैदाइश नबी-ए-अकरम (स.अ.व.) के नबी बनने से पहले हुई थी।इनका निकाह हिजरत-ए-नबवी से पहले अबू लहब के बेटे ‘उतैबा’ से हुआ था। जब रसूल-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने लोगों को इस्लाम की ओर बुलाया तो अबू लहब ने अपने बेटे ‘उतैबा’ को उम्मे कुलसूम से अलग करने का हुक्म दिया। ज्यादा दुश्मनी की वजह से निकाह तोड़ दिया गया। जुदाई के बाद उम्मे कुलसूम अपनी मां के साथ घर में रह रही थीं।अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी दोनों बेटियों के लिए दुआ की और फिर उनको सम्बोधित कर कहा:
इस्लाम में निकाह हराम है – यानी मुसलमान बेटियों का निकाह मुशरिक (अल्लाह के साथ किसी और को मानने वाले) से नहीं किया जा सकता। रसूल (स.अ.व.) की बेटियों को मुशरिक पति से अलहदा (अलग) कर दिया गया।उसके बाद हज़रत उम्मे कुलसूम (र.अ.) ने हिजरत कर ली और अपनी बहन हज़रत फातिमा और हज़रत उस्मान (र.अ.) के घर में रहने लगीं। इस दौरान कई सालों तक शादी नहीं हुई।

जब हज़रत रुक़ैय्या (र.अ.) की मृत्यु हुई, तो हज़रत उस्मान (र.अ.) बहुत दुखी और अकेले हो गए। उन्हीं दिनों में हज़रत उम्मे कुलसूम, जो कि रसूलुल्लाह (सल्ल.) की बेटी थीं, घर में अकेली थीं। हज़रत उस्मान (र.अ.) ने रसूलुल्लाह (स.अ.व.) से इच्छा ज़ाहिर की कि वे उम्मे कुलसूम से निकाह करना चाहते हैं। हज़रत उस्मान (र.अ.) के इस निवेदन पर, रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने उनकी इच्छा पूरी की और अपनी बेटी उम्मे कुलसूम का निकाह हज़रत उस्मान (र.अ.) से कर दिया।निकाह के बाद हज़रत उम्मे कुलसूम (र.अ.) ने बड़ी सादगी और पाकीज़गी से हज़रत उस्मान (र.अ.) के साथ अपनी जिंदगी बिताई। हज़रत उम्मे कुलसूम (र.अ.) की इसी पाकीज़गी और नेक चलन की वजह से रसूलुल्लाह (स.अ.व.) हज़रत उस्मान (र.अ.) से बहुत खुश रहे। जब उम्मे कुलसूम (र.अ.) का इंतकाल हुआ, तो रसूलुल्लाह (स.अ.व.) स्वयं उनकी कब्र में उतरे और भरपूर दुख के साथ उनकी विदाई दी।हज़रत उम्मे कुलसूम (र.अ.) का जनाज़ा जन्नतुल बकी नामक कब्रिस्तान में दफन किया गया। आपकी कब्र के पास कई दूसरी साहाबियात भी दफन हैं। हज़रत आसिम बिन उम्मर से रिवायत है कि उम्मे कुलसूम (र.अ.) की कब्र पर बैठ कर रोना मना है।इस तरह उम्मे कुलसूम (र.अ.) की संक्षिप्त जीवनी पूरी होती है।

हज़रत रुकय्या बिन्ते मुहम्मद (रज़ियल्लाहु अन्हा)..

हज़रत रुक़ैय्या बिंत रसूल अल्लाहरुक़ैय्या नाम, रसूल-ए-करीम हज़रत मोहम्मद (सल्ल.) की दूसरी सहाजी (बेटी) थीं। इनकी मां हज़रत सैयदा खदीजा (र.अ.) थीं। रुक़ैय्या की शादी अबू लहब के बेटे ‘उत्बा’ से हुई थी, लेकिन जब इस्लाम आया तो अबू लहब और उसकी पत्नी ने रसूल (सल्ल.) के खिलाफ दुश्मनी दिखाई और अपने बेटे से हुक्म दिलवाया कि वह रुक़ैय्या से अलग हो जाए।इसके बाद, हज़रत उस्मान बिन अफ्फान (र.अ.) से इनका निकाह हुआ। उन्होंने रुक़ैय्या से बहुत मोहब्बत की, और उनके साथ बहुत नेक सुलूक किया।जब मुसलमानों पर मक्का में बहुत जुल्म हुआ, तो रसूल (सल्ल.) ने हिजरत (मक्के से निकलने) की इजाजत दे दी।

जन्म: नबूवत से कुछ साल पहले
शौहर: हज़रत उस्मान बिन अफ़्फ़ान (रज़ियल्लाहु अन्हु)

रुकय्या (र.अ.) बहुत ख़ूबसूरत और नर्म दिल औरत थीं।
जब मक्का में मुसलमानों पर अत्याचार हुआ, तो उन्होंने और उनके शौहर उस्मान (र.अ.) ने हिजरत-ए-हबशा (अबिसीनिया) की — यानी वह पहली मुसलमान औरतों में से थीं जिन्होंने इस्लाम के लिए घर छोड़ा।

मदीना लौटने के बाद जब ग़ज़वा-ए-बद्र हुआ, उस वक्त वह बीमार थीं और उनका इंतिक़ाल हो गया।
रसूलुल्लाह ﷺ ने खुद उनकी क़ब्र में उतरकर दफ़न किया।

सबक़: उन्होंने इस्लाम के लिए कुर्बानी और सब्र का बेहतरीन नमूना पेश किया।

हज़रत उस्मान और हज़रत रुक़ैय्या ने भी हिजरत की। रसूल (सल्ल.) ने फरमाया:”इब्राहीम और लूत (अ.) के बाद उस्मान पहले व्यक्ति हैं, जो अपनी पत्नी को लेकर ख़ुदा की राह में हिजरत कर रहे हैं।”

जब हज़रत उस्मान (रज़ि.) और हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) वापस आए तो देखा कि अपना सामान उनसे पहले ही भेज चुके थे। इस पर भी मक्का में ज्यादा दिन नहीं रुके। जब मदीना पहुंचे, तो वहां रसूलुल्लाह (सल्ल.) की खुशी की कोई सीमा न रही और आपने अपनी बेटी को अपने घर में रखा।हिजरत के कुछ महीने के बाद हज़रत उस्मान (रज़ि.) की सेवा में रहते हुए हज़रत रुकैय्या बीमार हो गईं। उस समय जब मुसलमानों पर बद्र की जंग के लिए निकलने का वक्त आया, तो रसूलुल्लाह (सल्ल.) ने हज़रत उस्मान (रज़ि.) को हुक्म दिया कि अपनी बीवी की सेवा करें और बद्र की जंग में शामिल न हों। जब जंग खत्म हुई और मुसलमान (विजयी हो गए) तो मदीना लौटते वक्त मस्जिदे-नबी के करीब हज़रत उस्मान (रज़ि.) की तरफ से मातम सुनाई दिया। पता चला कि हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) का इंतकाल हो गया।आपकी वफात रसूलुल्लाह (सल्ल.) की हयात-ए-मुबारक़ में ही हुई। जब आपकी दफ्न की (कब्र) की तैयारी हो रही थी, उस वक्त रसूलुल्लाह (सल्ल.) की आंखों में आंसू थे और आप बहुत दुखी थे। इसके बाद पुरानी साथी हज़रत सईदा उम्मे कुलसुम (रज़ि.) को हज़रत उस्मान (रज़ि.) के निकाह में दिया गया। इसलिए हज़रत उस्मान को ‘जुन्नैन’ (दो नूरों वाला) कहा जाता है। फिर जब हज़रत उस्मान और हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) वापस आए तो उन्होंने देखा कि अपना सामान वगैरह पहले ही मदीने भिजवा चुके थे। जाड़े का मौसम था, जब दोनों वहां पहुंचे, तो रसूलुल्लाह (स.अ.व.) को जान से ज्यादा खुशी हुई। आपने अपनी बेटी की तकलीफ और बीमारी देखकर बहुत जोर से प्यार और दया दिखाई। हज़रत उस्मान और हज़रत रुकैय्या, दोनों ने मदीने में बखूबी हिजरत की, और वहां के मुसलमानों और मुआजिरों में बहुत आसानियां मिलीं।लेकिन जब जंग-ए-बदर का वक्त आया, तो हज़रत उस्मान (रज़ि.) को रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने हुक्म दिया कि वह बीबी की बीमारी की वजह से बद्र में न जाएं और अपनी बीमार बीवी की खिदमत करें। जब जंग-ए-बदर में मुसलमान फतह याब हुए (जीत गए) और मदीना लौटे, तो उस वक्त हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) का इंतकाल हो चुका था। उनकी वफात की खबर सुनकर रसूलुल्लाह (स.अ.व.) की आंखों में आंसू आ गए। आपने बहुत दुख का इज़हार किया।आपकी वफात के बाद, हज़रत उस्मान (रज़ि.) को हज़रत उम्मे कुलसुम (रज़ि.) के साथ निकाह के लिए रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने इजाजत दी। इस वजह से हज़रत उस्मान (रज़ि.) को ‘जुन्नैन’ (दो नूरों वाला) का लकीब मिला।हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) की कब्र मदीना मुनव्वरा में हज़रत सैय्यदा आयशा (रज़ि.) की मां, उम्मे रुमान (रज़ि.) के बगल में जन्नतुल बकी में बनी हुई है।”

हज़रत ज़ैनब बिन्ते मुहम्मद ﷺ.


🌸 हज़रत ज़ैनब बिन्ते मुहम्मद ﷺ (रज़ियल्लाहु अन्हा) – पैग़म्बर की बड़ी बेटी और सब्र की मिसाल

इस्लाम के आख़िरी नबी, हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ, की चार बेटियों में सबसे बड़ी थीं हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा)
उनकी ज़िंदगी सब्र, वफ़ादारी और ईमानदारी का ऐसा नूर थी जो आज तक दुनिया के लिए मिसाल बनी हुई है।
उनके जीवन में मोहब्बत भी थी, जुदाई भी, दर्द भी था और अल्लाह के लिए कुर्बानी भी।
आइए, हम ज़ैनब (र.अ.) की पूरी ज़िंदगी को आसान भाषा में समझें।


🌿 जन्म और परिवार

हज़रत ज़ैनब (र.अ.) का जन्म नबूवत से लगभग 10 साल पहले मक्का मुअज़्ज़मा में हुआ।
वह नबी ﷺ और हज़रत ख़दीजा (र.अ.) की पहली औलाद थीं।
आपके घराने का माहौल हमेशा साफ़, ईमानदार और इंसाफ़पसंद रहा।

बचपन में ही ज़ैनब (र.अ.) ने अपने वालिद मुहम्मद ﷺ की सच्चाई और नेकियों को देखा।
माँ हज़रत ख़दीजा (र.अ.) एक बहुत समझदार और दानशील औरत थीं, और उन्होंने अपनी बेटियों की परवरिश बहुत अच्छे तरीक़े से की।


💍 निकाह और पारिवारिक जीवन

जब ज़ैनब (र.अ.) जवानी की उम्र में पहुँचीं, तो उनका निकाह उनके मामा (ख़दीजा र.अ. के भाई) के बेटे अबुल आस बिन रबी (रज़ियल्लाहु अन्हु) से हुआ।
अबुल आस क़ुरैश के एक इज़्ज़तदार और अमानतदार नौजवान थे।

निकाह से पहले रसूलुल्लाह ﷺ ने उन्हें यह कहकर पसंद किया था कि:

“अबुल आस ईमानदार है और अपनी बीवी से मोहब्बत करता है।”

अबुल आस और ज़ैनब (र.अ.) का रिश्ता बहुत मोहब्बत और भरोसे पर टिका था।
उनसे दो बच्चे पैदा हुए — अली (र.अ.) और उम्मामा (र.अ.)


☪️ नबूवत का ऐलान और इम्तिहान की शुरुआत

जब हज़रत मुहम्मद ﷺ ने अल्लाह के हुक्म से नबूवत (पैग़म्बरी) का ऐलान किया, तो ज़ैनब (र.अ.) ने बिना किसी झिझक के ईमान कबूल कर लिया।
उन्होंने अपने वालिद पर पूरा भरोसा किया कि वह झूठ नहीं बोल सकते।

लेकिन उनके शौहर अबुल आस ने उस वक़्त इस्लाम क़बूल नहीं किया।
फिर भी उन्होंने अपनी बीवी के ईमान में कोई रुकावट नहीं डाली — यह उनकी अच्छाई का सबूत था।

मक्का के क़ुरैश ने जब मुसलमानों पर ज़ुल्म शुरू किया, तो ज़ैनब (र.अ.) ने बहुत सब्र किया।
वह अपने वालिद की मदद करतीं, उनपर पत्थर फेंके जाते, मज़ाक उड़ाया जाता — मगर ज़ैनब (र.अ.) हमेशा कहतीं:

“अब्बा जान सच्चे हैं, मैं जानती हूँ।”


🕋 हिजरत और मक्का में जुदाई

जब मुसलमानों को मक्का में रहना मुश्किल हो गया, तो नबी ﷺ ने मदीना की हिजरत की।
उस समय ज़ैनब (र.अ.) अपने शौहर अबुल आस के साथ मक्का में ही रह गईं।
उनके दिल में एक ओर ईमान का नूर था, दूसरी ओर अपने वालिद से जुदाई का दर्द।

कुछ समय बाद ग़ज़वा-ए-बद्र (बद्र की जंग) हुई।
इस जंग में अबुल आस, जो अभी मुसलमान नहीं हुए थे, क़ुरैश की तरफ़ से लड़े और कै़द हो गए।


💎 कै़द से रिहाई का वाक़िया

जब मुसलमानों ने मक्का वालों के क़ैदियों को पकड़ा, तो ज़ैनब (र.अ.) को पता चला कि उनके शौहर अबुल आस भी कै़द में हैं।
उनके पास देने के लिए कुछ नहीं था, लेकिन उन्होंने अपनी माँ हज़रत ख़दीजा (र.अ.) का एक हार (गले का हार) निकालकर भेज दिया — जो शादी के वक़्त उनकी माँ ने दिया था।

जब वह हार रसूलुल्लाह ﷺ के सामने पहुँचा, तो उन्होंने उसे देखा और उनकी आँखों में आँसू आ गए।
उन्होंने साथियों से कहा:

“अगर तुम चाहो तो अबुल आस को ज़ैनब का हार लौटाकर आज़ाद कर दो।”

सभी सहाबा ने हामी भर दी, और अबुल आस को रिहा कर दिया गया।
रसूलुल्लाह ﷺ ने उनसे यह वादा लिया कि वह मक्का लौटकर ज़ैनब (र.अ.) को मदीना भेज देंगे।


🕊️ मदीना की हिजरत

अबुल आस ने वादा निभाया।
उन्होंने ज़ैनब (र.अ.) को मदीना रवाना किया, जहाँ उन्होंने अपने वालिद और परिवार से मुलाक़ात की।
लेकिन रास्ते में कुछ दुश्मनों ने उनके क़ाफ़िले पर हमला किया, जिससे ज़ैनब (र.अ.) घायल हो गईं।
यह ज़ख़्म बाद में उनके लिए जानलेवा साबित हुआ।

मदीना पहुँचने के बाद वह लंबे समय तक बीमार रहीं, मगर सब्र और शुक्र के साथ ज़िंदगी गुज़ारती रहीं।


💖 अबुल आस का ईमान

कुछ साल बाद, जब अबुल आस (र.अ.) एक कारोबारी सफ़र से लौट रहे थे, तो मदीना के क़रीब उनका काफ़िला मुसलमानों के कब्ज़े में आ गया।
वह रात के अंधेरे में ज़ैनब (र.अ.) के घर पहुँचे और कहा:

“मैं अल्लाह और उसके रसूल में ईमान लाता हूँ।”

यह सुनकर ज़ैनब (र.अ.) की आँखों से आँसू बह निकले।
उन्होंने रसूलुल्लाह ﷺ को बुलवाया और सारी बात बताई।

रसूलुल्लाह ﷺ बहुत ख़ुश हुए और कहा:

“अबुल आस ने सच्चा वादा निभाया।”

अबुल आस (र.अ.) ने मुसलमानों को उनका माल लौटाया और मदीना में बस गए।
रसूलुल्लाह ﷺ ने ज़ैनब (र.अ.) और अबुल आस (र.अ.) को फिर से निकाह के बिना एक-दूसरे के साथ रहने की इजाज़त दी — क्योंकि उनका पुराना निकाह बरक़रार था।


🌹 आख़िरी ज़िंदगी और इंतिक़ाल

ज़ैनब (र.अ.) की सेहत पहले से ही कमज़ोर थी।
मदीना में कुछ समय बाद उनकी तबियत बिगड़ने लगी।
रसूलुल्लाह ﷺ अक्सर उनके पास जाकर उनका हाल पूछते।

आख़िरकार 8 हिजरी में, उन्होंने इस दुनिया से रुख़्सत ली।
रसूलुल्लाह ﷺ ने ख़ुद उनकी जनाज़े की नमाज़ पढ़ाई और उन्हें जन्नतुल बक़ी में दफ़न किया।
उनकी मौत पर नबी ﷺ बहुत ग़मगीन हुए और फ़रमाया:

“ज़ैनब मेरी वो बेटी थी जो सबसे पहले मेरे दुख-सुख में साथ रही।”



💫 हज़रत ज़ैनब (र.अ.) के गुण

  1. ईमान की मजबूती: उन्होंने इस्लाम को दिल से कबूल किया, चाहे हालात कितने ही मुश्किल क्यों न हों।
  2. वफ़ादारी: अपने शौहर के साथ रिश्ते को ईमानदारी से निभाया और अल्लाह पर भरोसा रखा।
  3. सब्र और शुक्र: चोट, जुदाई और बीमारी — सब कुछ सहकर भी अल्लाह का शुक्र अदा करती रहीं।
  4. इंसानियत और मोहब्बत: अपने वालिद और शौहर दोनों से मोहब्बत की, बिना किसी स्वार्थ के।

🌺 उनके बच्चों का ज़िक्र

  • अली बिन अबुल आस (र.अ.): बचपन में ही इंतेक़ाल हो गया।
  • उम्मामा बिन्ते अबुल आस (र.अ.): रसूलुल्लाह ﷺ उन्हें बहुत प्यार करते थे।
    एक बार आपने उन्हें कंधे पर उठाया हुआ था, जब नमाज़ में गए, तो उन्हें धीरे से नीचे रखा और फिर उठाया।
    बाद में हज़रत अली (र.अ.) ने उनका निकाह किया।

🌻 हज़रत ज़ैनब (र.अ.) से मिलने वाले सबक़

  1. ईमान हर रिश्‍ते से ऊपर है।
  2. औरत का असली सौंदर्य उसका अख़लाक़ और सब्र है।
  3. अल्लाह पर भरोसा और सच्चाई इंसान को कभी शर्मिंदा नहीं करती।
  4. मुश्किल वक्त में उम्मीद रखना ही असली इबादत है।

🕌 नतीजा

हज़रत ज़ैनब बिन्ते मुहम्मद (रज़ियल्लाहु अन्हा) की ज़िंदगी हमें यह सिखाती है कि सच्चा ईमान कभी कमज़ोर नहीं होता।
उन्होंने बतौर बेटी, बीवी और मुसलमान, हर भूमिका में एक ऊँचा दर्जा हासिल किया।
उनकी कहानी सिर्फ़ इतिहास नहीं, बल्कि एक ज़िंदा सबक़ है — सब्र, वफ़ादारी और अल्लाह पर भरोसे का।


हज़रत ख़दीजा (रज़ि.).


हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) – इस्लाम की पहली महिला मुसलमान

परिचय

हज़रत ख़दीजा बिंत ख्वाइल्द (रज़ि.) इस्लाम की पहली महिला थीं जिन्होंने नबी करीम ﷺ की पत्नी बनकर इस्लाम की सेवा की। वे न केवल नैतिकता और ईमान की मिसाल थीं, बल्कि अपने चरित्र, ईमानदारी और बलिदान के कारण प्रारंभिक इस्लाम की मजबूती में अहम भूमिका निभाई। उनकी जिंदगी आज भी हर मुसलमान, विशेषकर महिलाओं, के लिए यह सिखाती है कि विश्वास, धैर्य और नेक इरादों से समाज और धर्म पर प्रभाव डाला जा सकता है।


परिवार और प्रारंभिक जीवन

हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) का जन्म क़ुरैश के प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। उन्हें “ताहिरा” (पवित्र) कहा जाता था, जो उनकी शुद्धता और ईमानदारी का प्रतीक है।

  • उन्होंने अपने युवावस्था में व्यापार शुरू किया और इसमें सफल हुईं।
  • वे अपने व्यापार में ईमानदारी और बुद्धिमानी की मिसाल थीं।
  • क़ुरैश के लोग उनकी सफलता और ईमानदारी की वजह से उन्हें सम्मान देते थे।
  • उनका व्यक्तित्व उच्च नैतिकता, सदाचार और उदारता का प्रतीक था।
  • हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) का धार्मिक और नैतिक प्रशिक्षण उन्हें नबी ﷺ के मिशन में पूरी तरह भाग लेने के योग्य बनाता था।

हज़रत मुहम्मद ﷺ से मुलाकात और विवाह

हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) ने नबी ﷺ की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के बारे में सुना। उन्होंने उन्हें व्यापार के लिए अपना धन सौंपा और नबी ﷺ ने व्यापार को सफलता से पूरा किया।

  • व्यापार के बाद, हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) ने नबी ﷺ की ईमानदारी और चरित्र की प्रशंसा की और उनसे विवाह कर लिया।
  • विवाह के बाद उन्होंने हमेशा नबी ﷺ के सम्मान और गरिमा को महत्व दिया और परिवार के हर मामले में उनका समर्थन किया।
  • यह विवाह केवल व्यक्तिगत रिश्ता नहीं था, बल्कि प्रारंभिक इस्लाम के प्रचार और मजबूती के लिए भी महत्वपूर्ण साबित हुआ।

इस्लाम स्वीकार करने वाली पहली महिला

जब नबी ﷺ पर वही (वहिष्या) आई, हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) पहली महिला थीं जिन्होंने इस्लाम स्वीकार किया।

  • उन्होंने नबी ﷺ की नबुवत पर पूरा विश्वास किया।
  • प्रारंभिक इस्लाम के कठिन समय में उन्होंने भावनात्मक और वित्तीय समर्थन दिया।
  • उनके विश्वास और बलिदान ने शुरुआती मुसलमानों को विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिर और मजबूत रखा।

वित्तीय और भावनात्मक समर्थन

हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) ने नबी ﷺ के मिशन का समर्थन केवल अपने विश्वास से नहीं किया, बल्कि अपनी दौलत और संसाधनों से भी इस्लाम की सेवा की।

  • उन्होंने अपने व्यापार और धन से मुसलमानों की मदद की।
  • यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने अपना धन नबी ﷺ के मिशन के लिए समर्पित कर दिया।
  • उनके वित्तीय समर्थन से शुरुआती मुसलमान कठिन परिस्थितियों में भी मजबूत बने रहे।

नैतिक और आध्यात्मिक चरित्र

हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) का जीवन सदाचार, ईमान और बलिदान का उत्तम उदाहरण है।

  • उन्होंने हमेशा सत्य और अच्छाई को महत्व दिया।
  • अपने पति, परिवार और धर्म की सेवा में पहल की।
  • क़ुरैश के लोग उनकी उदारता और धैर्य की वजह से सम्मान करते थे।
  • उनका चरित्र हर मुसलमान महिला के लिए मार्गदर्शन है कि कैसे ईमान, अच्छाई और बलिदान से समाज और धर्म की सेवा की जा सकती है।

निधन और इस्लामी इतिहास में स्थान

हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) का निधन 10 हिजरी में हुआ। यह नबी ﷺ के लिए बहुत बड़ा आघात था और इस वर्ष को “आम अल-हुज़न” (दुःख का साल) कहा गया।

  • उनके निधन के बाद नबी ﷺ ने हमेशा उनकी याद और सेवाओं को याद किया।
  • हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) की भूमिका प्रारंभिक इस्लाम में हमेशा प्रमुख रही।

निष्कर्ष

हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) इस्लाम की पहली महिला मुस्लिम थीं और प्रारंभिक इस्लाम की मजबूती में उनकी भूमिका अविस्मरणीय है।

  • उन्होंने ईमान, बलिदान, धैर्य और ईमानदारी की मिसाल स्थापित की।
  • उनकी जिंदगी आज भी मुसलमानों, विशेषकर महिलाओं, के लिए मार्गदर्शन का स्रोत है।
  • हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) की सेवाओं के बिना प्रारंभिक इस्लाम इतनी मजबूत नहीं होता।

आज भी हर मुसलमान पुरुष और महिला को हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) की जिंदगी से सीख लेना चाहिए कि विश्वास, बलिदान और ईमानदारी के साथ धर्म की सेवा कैसे की जाती है।


हज़रत मैमूना बिन्ते हारिस…


हज़रत मैमूना बिन्ते हारिस (रज़ियल्लाहु अन्हा) – उम्महातुल मोमिनीन

इस्लाम के इतिहास में जिन औरतों ने अपना नाम इबादत, सादगी और रसूलुल्लाह ﷺ की मोहब्बत से रोशन किया, उनमें हज़रत मैमूना बिन्ते हारिस (रज़ियल्लाहु अन्हा) का नाम भी शामिल है। वह उम्महातुल मोमिनीन में से आख़िरी बीवी थीं, जिनसे रसूलुल्लाह ﷺ ने निकाह किया।


जन्म और परिवार

हज़रत मैमूना (र.अ.) का जन्म मक्का के क़रीब हुआ। उनके वालिद का नाम हारिस बिन हज़न और वालिदा का नाम हिंद बिन्ते औफ़ था।

हिंद बिन्ते औफ़ को अरब की “सबसे नेक औरत” कहा जाता था, क्योंकि उनकी बेटियों का निकाह बहुत बड़े और नेक लोगों से हुआ। हज़रत मैमूना (र.अ.) की बहन उम्मुल फज़्ल लुबाबा (र.अ.) थीं, जो हज़रत अब्बास (र.अ.) की बीवी थीं। इस तरह हज़रत मैमूना (र.अ.) का घराना सीधे रसूलुल्लाह ﷺ के क़रीबी रिश्तेदारों से जुड़ा हुआ था।


पहला निकाह और विधवा होना

मैमूना (र.अ.) का पहला निकाह मसऊद बिन अम्र से हुआ था। लेकिन यह निकाह ज़्यादा दिनों तक नहीं चला। बाद में उन्होंने अबू रह्म बिन अब्दुल उज़्ज़ा से निकाह किया। लेकिन कुछ ही समय बाद वह भी इंतिक़ाल कर गए। इस तरह मैमूना (र.अ.) कम उम्र में ही विधवा हो गईं।


रसूलुल्लाह ﷺ से निकाह

हिजरत के बाद 7 हिजरी में, जब रसूलुल्लाह ﷺ उमरा क़ज़ा (उमरा-ए-प्रतिपूर्ति) अदा करने मक्का आए, तो हज़रत अब्बास (र.अ.) ने अपनी साली मैमूना (र.अ.) का रिश्ता रसूलुल्लाह ﷺ को पेश किया।

रसूलुल्लाह ﷺ ने इसे क़ुबूल किया और इस तरह हज़रत मैमूना (र.अ.) का निकाह रसूलुल्लाह ﷺ से हुआ। यह निकाह “सरय्या-ए-मुअता” के बाद और “ग़ज़वा-ए-हुनेन” से पहले हुआ।

कहा जाता है कि यह निकाह उमर-ए-क़ज़ा से वापसी पर सरफ़-नाम की जगह हुआ। वहीं निकाह का ऐलान किया गया और यह रसूलुल्लाह ﷺ का आख़िरी निकाह था।


स्वभाव और सादगी

हज़रत मैमूना (र.अ.) बहुत ही सादगी पसंद, परहेज़गार और अल्लाह से डरने वाली औरत थीं। उनका स्वभाव बेहद नर्म और दिल बहुत बड़ा था।

उनका घराना भी इस्लाम की ख़िदमत करने वाला था। उनकी बहन उम्मुल फज़्ल (र.अ.) हज़रत अब्बास (र.अ.) के साथ हर मुश्किल घड़ी में मुसलमानों के साथ रहीं।


इल्म और हदीस की रिवायत

हज़रत मैमूना (र.अ.) ने रसूलुल्लाह ﷺ से बहुत-सी हदीसें रिवायत कीं। वह रसूलुल्लाह ﷺ की इबादतों और घर के मामलात की गवाह रहीं।

उनसे तक़रीबन 76 हदीसें बयान की गईं, जिन्हें बुख़ारी, मुस्लिम और दूसरी किताबों में दर्ज किया गया है। इन हदीसों में रसूलुल्लाह ﷺ की इबादत, रोज़मर्रा की ज़िंदगी और अख़लाक़ का ज़िक्र मिलता है।


आख़िरी ज़िंदगी और इंतिक़ाल

हज़रत मैमूना (र.अ.) ने अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा मदीना मुनव्वरा में गुज़ारा। वह अक्सर इबादत और दूसरों की मदद में लगी रहतीं।

उनका इंतिक़ाल 51 हिजरी (कुछ रिवायतों के मुताबिक़ 61 हिजरी) में हुआ। जब उनका वक़्त आया तो उन्होंने दुआ की:

“अल्लाहुम्मा ला तमिक़नी”
“ऐ अल्लाह! मुझे और तकलीफ़ मत दे।”

उनका जनाज़ा अब्दुल्लाह बिन अब्बास (र.अ.) ने पढ़ाया और उन्हें उसी जगह दफ़न किया गया जहाँ उनका निकाह रसूलुल्लाह ﷺ से हुआ था – सरफ़ नामी जगह।


सबक़ और नसीहत

हज़रत मैमूना (र.अ.) की ज़िंदगी हमें कई सबक़ देती है:

  • मुश्किलात के बावजूद ईमान पर क़ायम रहना चाहिए।
  • सादगी और परहेज़गारी ही असली ज़ेवर है।
  • इल्म को फैलाना और दूसरों को नेकी की राह दिखाना एक बड़ा सदक़ा है।

नतीजा

हज़रत मैमूना बिन्ते हारिस (रज़ियल्लाहु अन्हा) उम्महातुल मोमिनीन में से एक थीं। उनकी ज़िंदगी इबादत, सादगी और इल्म से भरी हुई थी। वह आख़िरी बीवी थीं जिनसे रसूलुल्लाह ﷺ ने निकाह किया। उनका नाम हमेशा इस्लाम की नेक और पाक औरतों में लिया जाएगा।


हज़रत सऊदा बिन्ते ज़मआ (रज़ियल्लाहु अन्हा)

इस्लाम के इतिहास में जिन महान हस्तियों ने अपना जीवन अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की मोहब्बत में गुज़ार दिया, उनमें उम्महातुल मोमिनीन (मोमिनों की माताएँ) का बहुत ऊँचा स्थान है। इन्हीं में से एक थीं हज़रत सऊदा बिन्ते ज़मआ (रज़ियल्लाहु अन्हा)। उनका नाम इस्लाम की पहली महिलाओं में लिया जाता है, जिन्होंने कठिन हालात के बावजूद ईमान की राह को चुना और पूरी ज़िंदगी रसूलुल्लाह ﷺ के साथ वफ़ादारी और ईमानदारी से गुज़ारी।


जन्म और खानदान

हज़रत सऊदा (र.अ.) का जन्म मक्का मुअज़्ज़मा में हुआ था। उनके वालिद का नाम ज़मआ बिन क़ैस और वालिदा का नाम शम्सा बिन्ते क़ैस था। वह क़ुरैश क़बीले से ताल्लुक़ रखती थीं, जो अरब का मशहूर और असरदार क़बीला था।

उनका घराना क़ुरैश के उन घरों में गिना जाता था जो अरब समाज में इज़्ज़त और ओहदे वाले थे।


पहला निकाह और ईमान की राह

सऊदा (र.अ.) का पहला निकाह सकरान बिन अम्र (र.अ.) से हुआ। सकरान (र.अ.) उन शुरुआती लोगों में से थे जिन्होंने इस्लाम कबूल किया। जब हज़रत मुहम्मद ﷺ ने पैग़म्बरी का ऐलान किया तो सऊदा (र.अ.) और उनके शौहर ने बिना किसी झिझक के ईमान ले लिया।

लेकिन उस दौर में मुसलमान होना आसान नहीं था। क़ुरैश के लोग नए मुसलमानों को तरह-तरह की तकलीफ़ें देते थे। इसी वजह से सऊदा (र.अ.) और उनके शौहर ने हिजरत-ए-हबशा (अबिसीनिया की हिजरत) की। वहाँ कुछ समय रहने के बाद वह मक्का वापस लौट आए।


शौहर का इंतिक़ाल

मक्का लौटने के बाद कुछ ही समय में उनके शौहर सकरान (र.अ.) का इंतिक़ाल हो गया। इस तरह सऊदा (र.अ.) विधवा हो गईं। उस दौर में विधवा होना बहुत कठिन था, क्योंकि अरब समाज में अकेली औरत को सहारा नहीं मिलता था।

यही वह समय था जब अल्लाह ने उनकी तक़दीर में एक बड़ी इज़्ज़त लिखी।


रसूलुल्लाह ﷺ से निकाह

हज़रत ख़दीजा (र.अ.) के इंतिक़ाल के बाद रसूलुल्लाह ﷺ बहुत ग़मगीन रहने लगे। वह दौर इस्लामी दावत का सबसे कठिन वक़्त था। ऐसे में आप ﷺ को एक ऐसी बीवी की ज़रूरत थी जो घर की ज़िम्मेदारियों को सम्भाल सके और बच्चियों (रसूल ﷺ की बेटियों) की परवरिश कर सके।

इसी दौरान सऊदा (र.अ.) का निकाह रसूलुल्लाह ﷺ से हुआ। निकाह का ऐलान मक्का ही में हुआ और सऊदा (र.अ.) को “उम्महातुल मोमिनीन” का दर्जा मिला।


सादगी और वफ़ादारी

सऊदा (र.अ.) का स्वभाव बहुत सादा, सीधा और नेक था। वह बड़ी उमर की थीं, लेकिन दिल से बहुत पाक और साफ़ थी। वह रसूलुल्लाह ﷺ से बेहद मोहब्बत करतीं और उनकी हर बात पर अमल करतीं।

उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी सख़ावत (दारिया दिली) और वफ़ादारी थी। वह अपनी ज़िंदगी बहुत सादगी से गुज़ारतीं, किसी तरह की दुनियावी आरज़ू न रखतीं।


रसूलुल्लाह ﷺ के घर में किरदार

सऊदा (र.अ.) ने रसूलुल्लाह ﷺ के घर में बेटियों की परवरिश की। हज़रत फ़ातिमा (र.अ.) और उनकी बहनों से वह सगी माँ जैसी मोहब्बत करती थीं।

सऊदा (र.अ.) अक्सर घर के कामों में लगी रहतीं। उनकी आदत थी कि जो चीज़ मिलती, उसका कुछ हिस्सा अपने पास रखतीं और बाक़ी अल्लाह की राह में बाँट देतीं।


एक अहम वाक़िया

सऊदा (र.अ.) के बारे में किताबों में आता है कि जब रसूलुल्लाह ﷺ ने अपनी एक बीवी से जुदाई का इरादा किया, तो सऊदा (र.अ.) ने अर्ज़ किया:

“ऐ अल्लाह के रसूल ﷺ! मुझे अपनी बीवियों में से रहने दीजिए। मुझे दुनियावी चीज़ों की चाह नहीं। बस मैं चाहती हूँ कि क़ियामत के दिन मुझे भी आपकी बीवीयों में लिखा जाए।”

उनकी इस मोहब्बत और वफ़ादारी की वजह से रसूलुल्लाह ﷺ ने उन्हें अपनी निकाह में बनाए रखा।


हज और इबादत

सऊदा (र.अ.) इबादतगुज़ार औरत थीं। वह अक्सर रोज़ा रखतीं और नमाज़ों में लगी रहतीं। हज और उमरा अदा किया और हमेशा दूसरों को भी नेक कामों की तरग़ीब देतीं।


आख़िरी ज़िंदगी और इंतिक़ाल

हज़रत सऊदा (र.अ.) ने अपनी आख़िरी ज़िंदगी मदीना मुनव्वरा में गुज़ारी। वह अक्सर घर पर रहतीं और ज़्यादा बाहर नहीं निकलतीं। उनकी ज़िंदगी पूरी तरह सादगी और इबादत में बीती।

उनका इंतिक़ाल हज़रत उमर (र.अ.) के दौर-ए-ख़िलाफ़त (लगभग 22 हिजरी) में हुआ। उन्हें जन्नतुल बक़ी कब्रिस्तान में दफ़न किया गया।


उनकी ज़िंदगी से सबक़

हज़रत सऊदा (र.अ.) की ज़िंदगी हमें यह सिखाती है:

  • ईमान के लिए हर क़ुरबानी देनी चाहिए।
  • दुनियावी शोहरत और आरज़ू से ऊपर उठकर अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की मोहब्बत करनी चाहिए।
  • सादगी, वफ़ादारी और दूसरों की ख़िदमत ही असली नेकी है।

नतीजा

हज़रत सऊदा बिन्ते ज़मआ (रज़ियल्लाहु अन्हा) का नाम इस्लामी इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। वह सिर्फ़ रसूलुल्लाह ﷺ की बीवी ही नहीं, बल्कि उम्महातुल मोमिनीन में से एक थीं। उनकी ज़िंदगी और उनकी मोहब्बत, हर मुसलमान के लिए एक बड़ी मिसाल है।

हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰)


हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰)

परिचय

हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) उम्महातुल-मुमिनीन में से एक हैं। उनका असली नाम हिंद बिन्ते अबू उमैया था। वह नबी मुहम्मद ﷺ की पत्नी और मुमिनों की माँ हैं। उनकी ज़िन्दगी इस्लाम की कई अहम सीखों और मिसालों से भरी हुई है। उन्होंने अपने ज्ञान, सब्र और समझदारी से उम्मत को मार्गदर्शन दिया।


जन्म और परिवार

  • हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) का जन्म मक्का में हुआ।
  • उनके वालिद का नाम अबू उमैया सुहैल बिन मग़ीरा था, जो उस समय क़ुरैश के प्रभावशाली व्यक्तियों में से थे।
  • वालिदा का नाम आतिका बिन्ते आमिर था।
  • वह बचपन से ही बुद्धिमान, समझदार और धार्मिक माहौल में पली-बढ़ीं।

पहला निकाह

  • उनका पहला निकाह सहाबी अबू सलमा (रज़ि॰अ॰) से हुआ था।
  • अबू सलमा (रज़ि॰अ॰) नबी ﷺ के करीबी औरत-दोस्त सहाबी थे।
  • इस्लाम के शुरुआती दिनों में जब मुसलमानों पर अत्याचार बढ़े, तो वह अपने पति के साथ हिजरत-ए-अबीसीनिया (हब्शा) गए।
  • वहां उन्होंने मुसलमानों के लिए शरण और सुरक्षा पाई।

पति की शहादत और कठिनाइयाँ

  • हिजरत के दौरान अबू सलमा (रज़ि॰अ॰) शहीद हो गए।
  • उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) चार बच्चों के साथ अकेली रह गईं।
  • उन्होंने धैर्य और ईमान के साथ इस कठिन परिस्थिति का सामना किया।

पैग़म्बर ﷺ से निकाह

  • अबू सलमा (रज़ि॰अ॰) की शहादत के बाद उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) का निकाह पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ से हुआ।
  • उन्होंने कुछ शर्तें रखीं, जैसे अपने बच्चों का भरण-पोषण और व्यक्तिगत आज़ादी।
  • नबी ﷺ ने उन्हें पूरा अधिकार दिया और उनका निकाह इस्लाम की शिक्षा और सुकून की मिसाल बन गया।
  • निकाह के बाद वह उम्मुल मोमिनीन बन गईं और उनका उच्च स्थान निश्चित हुआ।

अक़्ल और मशवरे

  • हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) बहुत समझदार और दूरदर्शी थीं।
  • सुल्ह-ए-हुदैबिया के समय, जब सहाबा को कोई फैसला लेने में दिक्कत हो रही थी, उन्होंने नबी ﷺ को सही सलाह दी।
  • उनकी यह सलाह पूरी उम्मत के लिए एक अमूल्य सबक़ बन गई।

दीनी योगदान

  • हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) ने औरतों को इस्लाम की शिक्षा दी।
  • उन्होंने हदीसें रिवायत की और महिलाओं तक पैग़म्बर ﷺ की हिदायतें पहुँचाईं।
  • उनके माध्यम से लगभग 200 हदीसें आज भी सुरक्षित हैं।

खूबियाँ और स्वभाव

  1. सब्र और धैर्य – पति की शहादत और कठिन परिस्थितियों में भी सब्र किया।
  2. समझदारी – मुश्किल हालात में सही मार्गदर्शन किया।
  3. इबादतगुज़ारी – नमाज़, रोज़ा और दुआ में हमेशा आगे रहतीं।
  4. औरतों की मार्गदर्शिका – हदीसों और दीनी मसाइल में महिलाओं को सही राह दिखाई।

इन्तक़ाल

  • हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) का इंतक़ाल 62 हिजरी (लगभग 680 ईस्वी) में हुआ।
  • उन्हें मदीना मुनव्वरा के जन्नतुल-बक़ी क़ब्रिस्तान में दफ़न किया गया।
  • उनका लंबा जीवन इस बात का सबूत है कि उन्होंने इस्लाम की सेवा में अपनी पूरी ऊर्जा लगाई।

मुक़ाम और सबक़

  • उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) की ज़िन्दगी से मुसलमानों को यह सबक़ मिलता है कि कठिनाइयों में सब्र करना और अल्लाह पर भरोसा रखना सबसे बड़ी ताक़त है।
  • उनका निकाह और दीनी योगदान यह दर्शाता है कि महिलाएँ भी इस्लाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
  • उम्मुल मोमिनीन के रूप में उनका मुक़ाम हमेशा रोशन रहेगा।

✅ नतीजा

हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि॰अ॰) की ज़िन्दगी सब्र, ईमान और ज्ञान की मिसाल है। उन्होंने अपने बच्चों, मुसलमानों और औरतों के लिए शिक्षा, मार्गदर्शन और सहयोग दिया। उनका जीवन हर मुसलमान औरत के लिए प्रेरणा का स्रोत है।


हज़रत जुवैरिया बिन्ते हारिस (रज़ि॰अ॰)


हज़रत जुवैरिया बिन्ते हारिस (रज़ि॰अ॰)

परिचय

हज़रत जुवैरिया बिन्ते हारिस (रज़ि॰अ॰) उम्महातुल-मुमिनीन में से एक हैं। उनका असली नाम बर्रा बिन्ते हारिस था, लेकिन नबी मुहम्मद ﷺ ने उनका नाम बदलकर जुवैरिया रखा। वह अपने क़बीले की मुख़्तार औरत थीं और बाद में उम्मुल मोमिनीन का ऊँचा मुक़ाम हासिल किया। उनकी ज़िन्दगी इंसाफ़, रहमदिली और इस्लाम की ख़ूबसूरती का बड़ा सबूत है।


जन्म और परिवार

  • हज़रत जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) का जन्म मक्का के क़रीब क़बीला बनू मुस्तलिक में हुआ।
  • उनके वालिद का नाम हारिस बिन अबी दिरार था, जो क़बीले के सरदार थे।
  • वह बहुत इज़्ज़तदार और असरदार ख़ानदान से ताल्लुक़ रखती थीं।

बनू मुस्तलिक का वाक़िया

  • 5 हिजरी (लगभग 627 ईस्वी) में बनू मुस्तलिक के क़बीले और मुसलमानों के बीच लड़ाई हुई।
  • इस जंग में क़बीले के बहुत से लोग क़ैद कर लिए गए, जिनमें जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) भी शामिल थीं।
  • उन्हें एक सहाबी थाबित बिन कैस (रज़ि॰अ॰) के हिस्से में क़ैद के तौर पर मिला।

आज़ादी की कोशिश

  • हज़रत जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) बहुत समझदार और इज़्ज़तपसंद थीं।
  • उन्होंने चाहा कि अपनी क़ैद से छुटकारा पाने के लिए मुक़ातबा (ख़रीदकर आज़ाद होना) का रास्ता अपनाएँ।
  • इसी सिलसिले में वह नबी ﷺ की ख़िदमत में पहुँचीं ताकि उनकी मदद ली जा सके।

पैग़म्बर ﷺ से निकाह

  • जब नबी ﷺ ने जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) से मुलाक़ात की, तो उनकी इज़्ज़त और हालात को देखते हुए उनसे निकाह का प्रस्ताव दिया।
  • जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) ने खुशी-खुशी यह प्रस्ताव कबूल कर लिया।
  • नबी ﷺ से निकाह के बाद सहाबा ने कहा: “अब उम्मुल मोमिनीन के क़बीले वालों को क़ैद में रखना ठीक नहीं।”
  • नतीजा यह हुआ कि उनके सैकड़ों क़बीले वाले आज़ाद कर दिए गए।
  • इस तरह उनका निकाह पूरे क़बीले के लिए रहमत और बरकत बना।

उम्मुल मोमिनीन का दर्ज़ा

  • निकाह के बाद हज़रत जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) उम्मुल मोमिनीन बनीं।
  • वह बहुत इबादतगुज़ार थीं और अक्सर अपने कमरे में नमाज़ और ज़िक्र में मशग़ूल रहतीं।
  • सहाबा और सहाबियात उनसे इस्लाम के मसाइल सीखा करते थे।

खूबियाँ और स्वभाव

  • हज़रत जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) सादगी और इबादत की ज़िन्दगी जीती थीं।
  • वह नमाज़ और रोज़े की पाबंद थीं।
  • उनका स्वभाव नर्म और दिल ग़रीबों के लिए बहुत रहमदिल था।
  • उनकी इबादत का आलम यह था कि एक बार नबी ﷺ ने देखा कि वह सुबह से लेकर दोपहर तक एक ही जगह बैठकर अल्लाह का ज़िक्र कर रही हैं।

इस्लाम के लिए फ़ायदा

  • उनके निकाह की वजह से बनू मुस्तलिक का पूरा क़बीला इस्लाम के क़रीब आ गया।
  • बहुत से लोग इस्लाम ले आए और दुश्मनी की जगह मोहब्बत पैदा हो गई।
  • उनका निकाह इस्लाम के लिए एक बड़ा मोड़ साबित हुआ।

दीनी योगदान

  • हज़रत जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) से कुछ हदीसें भी रिवायत हुई हैं।
  • उन्होंने औरतों को दीनी मसाइल और इबादत की अहमियत बताई।
  • उनकी ज़िन्दगी यह दिखाती है कि इस्लाम ने औरतों को इज़्ज़त और आज़ादी दी।

इन्तक़ाल

  • हज़रत जुवैरिया (रज़ि॰अ॰) का इंतक़ाल 56 हिजरी (लगभग 676 ईस्वी) में मदीना मुनव्वरा में हुआ।
  • उन्हें जन्नतुल-बक़ी क़ब्रिस्तान में दफ़न किया गया।
  • इंतक़ाल के वक़्त उनकी उम्र लगभग 65 साल थी।

मुक़ाम और सबक़

  1. निकाह से बरकत – उनके निकाह की वजह से सैकड़ों लोग आज़ाद हुए।
  2. इबादत की मिसाल – वह लगातार ज़िक्र और नमाज़ में मशग़ूल रहती थीं।
  3. रहमदिली – उनका दिल गरीबों और ज़रूरतमंदों के लिए हमेशा खुला रहता था।
  4. उम्मुल मोमिनीन का दर्ज़ा – अल्लाह ने उन्हें मुमिनों की माँ बनाया, जो बहुत बड़ा मक़ाम है।

✅ नतीजा

हज़रत जुवैरिया बिन्ते हारिस (रज़ि॰अ॰) की ज़िन्दगी इस्लाम के इंसाफ़ और रहमदिली की ज़िंदा मिसाल है। वह उम्मुल मोमिनीन होने के साथ-साथ इबादत और सब्र की अलौकिक शख्सियत थीं। उनका निकाह पूरे क़बीले के लिए रहमत बना और उनकी इबादत हर मुसलमान के लिए मिसाल है।


हज़रत ज़ैनब बिन्ते जहश (रज़ि॰अ॰)

हज़रत ज़ैनब बिन्ते जहश (रज़ि॰अ॰)

परिचय

हज़रत ज़ैनब बिन्ते जहश (रज़ि॰अ॰) उम्महातुल-मुमिनीन में से एक मशहूर औरत हैं। वह नबी मुहम्मद ﷺ की चचेरी बहन थीं और बाद में उनकी बीवी बनीं। उनकी ज़िन्दगी इस्लाम की कई अहम सीखों से भरी हुई है। उनका निकाह और उससे जुड़ा वाक़िया कुरआन करीम में भी बयान हुआ है, जो उनके मुक़ाम की गवाही देता है।


जन्म और परिवार

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का जन्म मक्का शरीफ़ में हुआ।
  • उनके वालिद का नाम जहश बिन रियाब और वालिदा का नाम उमैमा बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब था।
  • वालिदा की वजह से हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का रिश्ता सीधे नबी ﷺ के साथ था, क्योंकि उमैमा नबी ﷺ की सगी फूफी थीं।
  • इस तरह हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) नबी ﷺ की चचेरी बहन हुईं।

पहला निकाह

  • इस्लाम ने क़बीलाई फ़र्क़ और ऊँच-नीच को मिटाने की कोशिश की।
  • इसी मक़सद से नबी ﷺ ने अपनी चचेरी बहन ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का निकाह अपने आज़ाद किए हुए ग़ुलाम ज़ैद बिन हारिसा (रज़ि॰अ॰) से किया।
  • लेकिन यह रिश्ता ज़्यादा दिन नहीं चला। मिज़ाज के फ़र्क़ और दूसरे कारणों से दोनों की जुदाई हो गई।
  • यह वाक़िया उस वक़्त की अरब समाज में एक बड़ी मिसाल बना, क्योंकि इसने दिखा दिया कि रिश्ते इंसानियत और तक़वा पर होते हैं, न कि ऊँच-नीच पर।

नबी ﷺ से निकाह

  • जब ज़ैद (रज़ि॰अ॰) से तलाक़ हो गया, तो अल्लाह तआला ने सीधे हुक्म दिया कि नबी ﷺ का निकाह ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) से हो।
  • कुरआन में सूरह अल-अहज़ाब (33:37) में यह वाक़िया बयान किया गया है।
  • यह निकाह इस बात की मिसाल बना कि इस्लाम ने गोद लिए हुए बेटे (मुतबन्ना) को असली बेटे जैसा दर्ज़ा नहीं दिया।
  • इस निकाह से अरबों की पुरानी रस्में टूट गईं और सही रास्ता सामने आया।

उम्मुल मोमिनीन का दर्ज़ा

  • नबी ﷺ से निकाह के बाद हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) उम्मुल मोमिनीन बनीं।
  • वह अपने तक़वा, सादगी और इबादतगुज़ारी की वजह से जानी जाती थीं।
  • वह बहुत रोज़ा रखतीं और रातों को तहज्जुद की नमाज़ पढ़ा करतीं।
  • गरीबों और मुहताजों की मदद करना उनका बड़ा गुण था।

स्वभाव और खूबियाँ

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) कभी-कभी सीधी और सख़्त बातें कर दिया करतीं, लेकिन उनका दिल बहुत साफ़ था।
  • वह सच बोलने वाली और सच्चाई पर डटने वाली थीं।
  • वह औरतों के मसाइल पर खुलकर राय देतीं और दूसरे सहाबा भी उनका एहतिराम करते थे।
  • इबादत और तक़वा में उनका कोई सानी नहीं था।

दीनी योगदान

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) से भी हदीसें रिवायत हुईं।
  • उन्होंने औरतों को इस्लाम की सही तालीम और इबादत की अहमियत समझाई।
  • उनकी ज़िन्दगी से यह सबक़ मिलता है कि इंसान को तक़वा और अल्लाह की इबादत पर ध्यान देना चाहिए, न कि दुनियावी चीज़ों पर।

अहम वाक़ियात

  1. निकाह का इलाही हुक्म – उनका नबी ﷺ से निकाह सीधा अल्लाह के हुक्म से हुआ, जो उनके ऊँचे दर्ज़े की निशानी है।
  2. तक़वा की मिसाल – वह हमेशा इबादत और रोज़ों में लगी रहतीं।
  3. ग़रीबों से मोहब्बत – गरीबों और मुहताजों की मदद करना उनका बड़ा गुण था।

इन्तक़ाल

  • हज़रत ज़ैनब बिन्ते जहश (रज़ि॰अ॰) का इंतक़ाल 20 हिजरी (लगभग 641 ईस्वी) में हुआ।
  • उनका जनाज़ा हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि॰अ॰) ने पढ़ाया।
  • उन्हें मदीना मुनव्वरा के मशहूर क़ब्रिस्तान जन्नतुल-बक़ी में दफ़न किया गया।

मुक़ाम और सबक़

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का मुक़ाम बहुत ऊँचा है।
  • उनकी ज़िन्दगी से हमें यह सबक़ मिलता है कि इंसानियत की असल क़ीमत तक़वा और अल्लाह का डर है, न कि क़बीलाई नस्ल या दौलत।
  • उनका निकाह इस्लाम के एक अहम उसूल को सामने लाता है कि गोद लिए हुए बेटे असली बेटे नहीं होते और उनके अहकाम अलग हैं।
  • उनकी इबादत और तक़वा आज भी हर औरत और मर्द के लिए मिसाल है।

✅ नतीजा

हज़रत ज़ैनब बिन्ते जहश (रज़ि॰अ॰) उम्मुल मोमिनीन में से एक महान औरत हैं। उनका इलाही हुक्म से हुआ निकाह और उनकी पूरी ज़िन्दगी इस्लाम की रोशनी से भरी हुई है। उन्होंने इबादत, सब्र और सच्चाई की जो मिसाल छोड़ी, वह हमेशा याद रखी जाएगी। उनकी ज़िन्दगी हमें यह सिखाती है कि अल्लाह के हुक्म के सामने इंसान को हमेशा सर झुकाना चाहिए।


हज़रत ज़ैनब बिन्ते ख़ुज़ैमा (रज़ि॰अ॰)


हज़रत ज़ैनब बिन्ते ख़ुज़ैमा (रज़ि॰अ॰)

परिचय

हज़रत ज़ैनब बिन्ते ख़ुज़ैमा (रज़ि॰अ॰) उम्महातुल-मुमिनीन में से एक हैं। आप इस्लाम की उन चुनिंदा महिलाओं में से हैं जिनका नाम उनकी सख़ावत (दानशीलता) और ग़रीबों पर रहमदिली की वजह से मशहूर हुआ। उन्हें लोग “उम्मुल-मसाकीन” यानी ग़रीबों की माँ कहा करते थे। उनकी ज़िन्दगी बहुत छोटी रही, लेकिन जो समय उन्होंने इस्लाम की सेवा और इंसानों की भलाई में गुज़ारा, वह हमेशा याद रखा जाएगा।


जन्म और परिवार

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का जन्म मक्का शरीफ़ में हुआ।
  • आपके वालिद का नाम ख़ुज़ैमा बिन हारिस और वालिदा का नाम हिन्द बिन्ते औफ़ था।
  • उनकी वालिदा उम्मुल मोमिनीनों में से कई और बीवियों की रिश्तेदार भी थीं। इस तरह हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का ताल्लुक़ एक नेक और इज़्ज़तदार ख़ानदान से था।

पहला निकाह

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का पहला निकाह अब्दुल्लाह बिन जहश (रज़ि॰अ॰) से हुआ था।
  • अब्दुल्लाह बिन जहश (रज़ि॰अ॰) नबी ﷺ के क़रीबी सहाबी थे और उन्होंने बद्र की लड़ाई में हिस्सा लिया।
  • बद्र की लड़ाई में ही अब्दुल्लाह बिन जहश (रज़ि॰अ॰) शहीद हो गए।
  • उनके शौहर की शहादत के बाद हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) विधवा हो गईं।

पैग़म्बर ﷺ से निकाह

  • अब्दुल्लाह बिन जहश (रज़ि॰अ॰) की शहादत के बाद पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) से निकाह किया।
  • यह निकाह उनके लिए एक सहारा और मुसलमानों के लिए एक मिसाल बना कि इस्लाम विधवा औरतों की इज़्ज़त और देखभाल करता है।
  • पैग़म्बर ﷺ का यह निकाह इंसाफ़ और मोहब्बत की एक बेहतरीन मिसाल है।

उम्मुल-मसाकीन

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) अपनी रहमदिली और दान की वजह से मशहूर थीं।
  • ग़रीब, यतीम और मुहताज लोग उनके घर आते और वह हमेशा उन्हें खाना, कपड़ा और मदद देतीं।
  • इसी वजह से उन्हें “उम्मुल-मसाकीन” यानी ग़रीबों की माँ कहा जाने लगा।
  • उनका यह ख़ास गुण उम्मत के लिए हमेशा सबक़ है कि इंसानियत और रहमदिली हर मुसलमान की पहचान होनी चाहिए।

दीनी शख्सियत

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) सादगी पसंद, इबादतगुज़ार और अल्लाह से डरने वाली औरत थीं।
  • वह नमाज़, रोज़ा और दान में आगे रहतीं।
  • इस्लाम के शुरुआती दौर में जब मुसलमानों को तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा, तब उन्होंने हमेशा सब्र किया और दूसरों की मदद की।

छोटा मगर रोशन जीवन

  • उम्मुल मोमिनीन हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का निकाह पैग़म्बर ﷺ से हुआ, लेकिन बहुत ज़्यादा समय तक आप उनके साथ न रह सकीं।
  • कहा जाता है कि निकाह के कुछ ही महीनों बाद उनका इंतक़ाल हो गया।
  • उनकी उम्र भी ज़्यादा नहीं थी, लेकिन कम उम्र में भी उन्होंने नेक कामों की ऐसी मिसाल छोड़ी जो रहत-ए-दुनिया तक ज़िंदा रहेगी।

इन्तक़ाल

  • हज़रत ज़ैनब (रज़ि॰अ॰) का इंतक़ाल नबी ﷺ के ज़माने में मदीना मुनव्वरा में हुआ।
  • उनका इंतक़ाल निकाह के कुछ महीनों बाद ही हो गया था।
  • उन्हें मदीना के मशहूर क़ब्रिस्तान जन्नतुल-बक़ी में दफ़न किया गया।
  • वह उम्मुल मोमिनीनों में से दूसरी बीवी हैं जिनका इंतक़ाल नबी ﷺ की ज़िन्दगी में ही हुआ।

मुक़ाम और यादगार बातें

  1. उम्मुल-मसाकीन – गरीबों और मुहताजों के लिए उनकी रहमदिली आज भी याद की जाती है।
  2. क़ुर्बानी की मिसाल – अपने पहले शौहर की शहादत और फिर अपनी छोटी ज़िन्दगी में उन्होंने सब्र और तक़वा दिखाया।
  3. उम्मुल मोमिनीन – उम्महातुल-मुमिनीन का मुक़ाम बहुत बड़ा है और उनका नाम भी उन रोशन नामों में शामिल है।

उम्मत के लिए सबक़

हज़रत ज़ैनब बिन्ते ख़ुज़ैमा (रज़ि॰अ॰) की ज़िन्दगी से मुसलमानों को यह सबक़ मिलता है कि इंसान को अपनी ज़िन्दगी दूसरों की मदद, अल्लाह की इबादत और नेक कामों में लगानी चाहिए। उम्र चाहे लंबी हो या छोटी, अहमियत इस बात की है कि इंसान अपने समय को किस तरह गुज़ारता है।


✅ नतीजा

हज़रत ज़ैनब बिन्ते ख़ुज़ैमा (रज़ि॰अ॰) उम्मुल मोमिनीन में से एक ऐसी शख्सियत हैं जिनका नाम हमेशा रहमदिली और इंसानियत की वजह से लिया जाएगा। उन्होंने गरीबों और ज़रूरतमंदों की मदद करके उम्मत के लिए एक रोशन मिसाल पेश की। उनका छोटा जीवन इस बात का सबूत है कि नेक कामों की वजह से इंसान का नाम हमेशा के लिए अमर हो जाता है।