हज़रत इदरीस (अ.स.)..


हज़रत इदरीस (अलैहिस्सलाम) – इस्लामिक नज़र से

भूमिका

हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) के बाद अल्लाह तआला ने जिन नबियों को इंसानियत की हिदायत के लिए भेजा, उनमें दूसरे नबी माने जाते हैं हज़रत इदरीस (अलैहिस्सलाम)। क़ुरआन करीम में उनका ज़िक्र कई जगह आया है। इस्लामी इतिहासकार बताते हैं कि वे बहुत ही अ़ाबिद (इबादत करने वाले), ज़ाहिद (दुनियावी लालच से दूर), और इल्म व हुनर के माहिर थे।

उनका असली नाम अख़नूख़ बताया जाता है और “इदरीस” उपाधि (लक़ब) उन्हें इस वजह से मिली क्योंकि वे बहुत ज़्यादा इल्म (ज्ञान) हासिल करते और लोगों को पढ़ाते थे।


जन्म और वंश

रिवायतों के मुताबिक़, हज़रत इदरीस (अ.स.) हज़रत शीस (अ.स.) के वंश से थे और हज़रत आदम (अ.स.) के परपोते माने जाते हैं।

  • आदम (अ.स.) → शीस (अ.स.) → अनूश → कैनान → महलइल → यर्द → इदरीस (अ.स.)

इस तरह इदरीस (अ.स.) आदम (अ.स.) से छठी नस्ल में जुड़े हुए हैं।


क़ुरआन में हज़रत इदरीस (अ.स.) का ज़िक्र

क़ुरआन मजीद में हज़रत इदरीस (अ.स.) का नाम दो जगह आता है:

  1. सूरह मरयम (56-57):

“और किताब में इदरीस का ज़िक्र करो। बेशक वह बहुत सच्चे नबी थे। हमने उन्हें बुलंद मुक़ाम पर उठाया।”

  1. सूरह अंबिया (85-86):

“और इस्माईल, इदरीस और ज़ुलकिफ़्ल – ये सब सब्र करने वालों में से थे। हमने उन्हें अपनी रहमत में दाख़िल किया, वो निस्संदेह नेक लोगों में से थे।”

इन आयतों से मालूम होता है कि हज़रत इदरीस (अ.स.) सच्चे, सब्र करने वाले और नेक नबी थे।


पैग़म्बरी और दावत

अल्लाह तआला ने हज़रत इदरीस (अ.स.) को नबूवत दी। उस ज़माने में लोग फिर से गुमराही की तरफ़ जा रहे थे। वे बुत-परस्ती और गुनाहों में पड़ने लगे थे।

इदरीस (अ.स.) ने अपनी क़ौम को समझाया:

  • सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करो।
  • शिर्क और गुनाहों से बचो।
  • सच बोलो, झूठ और धोखा छोड़ दो।
  • नेकी और इंसाफ़ पर क़ायम रहो।

कुछ लोग मान गए, लेकिन बहुत से लोग हठधर्मी पर अड़े रहे।


इल्म और हुनर

हज़रत इदरीस (अ.स.) को इल्म और हुनर में ख़ास दर्जा दिया गया था। रिवायतों में आता है कि:

  1. उन्होंने सबसे पहले क़लम से लिखना सिखाया।
  2. उन्होंने लोगों को सिलाई का काम (कपड़े सीना) सिखाया।
  3. वे सितारों और आसमानी निज़ाम (astronomy) के बारे में इल्म रखते थे।
  4. उन्होंने इंसानों को हिफ़ाज़ती हथियार (हथियार बनाना) भी सिखाया।

इस वजह से उन्हें “मुअल्लिमुल-बशर” यानी इंसानों का पहला उस्ताद भी कहा जाता है।


इबादत और सब्र

हज़रत इदरीस (अ.स.) बहुत इबादत करने वाले थे। कहा जाता है कि वे दिन का बड़ा हिस्सा रोज़े में और रात का बड़ा हिस्सा नमाज़ में गुज़ारते। अल्लाह की याद और तौबा हमेशा उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा रही।

उनकी सब्र और इस्तिक़ामत (दृढ़ता) की वजह से अल्लाह ने उनका नाम क़ुरआन में “सब्र करने वालों” के साथ लिया।


बुलंद मक़ाम

क़ुरआन में आया है कि अल्लाह ने हज़रत इदरीस (अ.स.) को “बुलंद मुक़ाम” पर उठाया।
मुफ़स्सिरीन (तफ़्सीर करने वाले) अलग-अलग राय देते हैं:

  • कुछ कहते हैं कि उन्हें आसमान पर उठा लिया गया, जैसे हज़रत ईसा (अ.स.) को।
  • कुछ कहते हैं कि यह उनके दर्जे और मक़ाम की बुलंदी की तरफ़ इशारा है।

ख़ुलासा यह है कि इदरीस (अ.स.) को अल्लाह ने दुनियावी और आख़िरती तौर पर बहुत ऊँचा मक़ाम अता किया।


उनकी क़ौम का हाल

हज़रत इदरीस (अ.स.) की नसीहतों के बावजूद उनकी क़ौम में गुमराही और गुनाह मौजूद रहे। लेकिन उनके मानने वाले लोग हमेशा नेक काम करते रहे। यही लोग बाद में नूह (अ.स.) के दौर तक पहुँचे।


हज़रत इदरीस (अ.स.) की वफ़ात

उनकी वफ़ात के बारे में अलग-अलग रिवायतें मिलती हैं।

  • कुछ कहते हैं कि उन्हें आसमान पर ही उठा लिया गया और वहीं उनकी ज़िन्दगी पूरी हुई।
  • कुछ कहते हैं कि अल्लाह ने उन्हें मौत दिए बग़ैर ही अपने पास बुला लिया।

इस बारे में सही इल्म सिर्फ़ अल्लाह के पास है।


हज़रत इदरीस (अ.स.) से सबक़

उनकी ज़िन्दगी से हमें कई अहम बातें सीखने को मिलती हैं:

  1. इल्म और तालीम की अहमियत – लिखना, पढ़ना, हुनर सिखाना सब इंसानियत की भलाई के लिए है।
  2. सब्र और इस्तिक़ामत – मुश्किल हालात में भी अल्लाह की इबादत और सच्चाई पर डटे रहना।
  3. तकब्बुर से बचना – इंसानियत को ऊँचा दर्जा इल्म और नेकी से मिलता है, घमंड से नहीं।
  4. अल्लाह पर भरोसा – नबी की ज़िन्दगी हमें सिखाती है कि मुश्किल में भी अल्लाह पर भरोसा रखना चाहिए।
  5. दुनिया और आख़िरत का ताल्लुक़ – इंसान को सिर्फ़ दुनिया नहीं, बल्कि आख़िरत की भी फ़िक्र करनी चाहिए।

इस्लामी नज़रिए से उनकी अहमियत

  • वे आदम (अ.स.) के बाद पहले नबी हैं।
  • उन्होंने इंसानों को इल्म और हुनर सिखाया।
  • उन्होंने तौहीद (एक अल्लाह की इबादत) का पैग़ाम दिया।
  • उनका मक़ाम इतना ऊँचा है कि क़ुरआन में अल्लाह ने उनकी सच्चाई और बुलंद दर्जा बयान किया।

निष्कर्ष

हज़रत इदरीस (अलैहिस्सलाम) इस्लामी इतिहास के उन महान नबियों में से हैं जिनका नाम क़ुरआन में आया है। वे इल्म और तालीम के पैग़म्बर थे। उनकी ज़िन्दगी हमें सिखाती है कि इंसान को इल्म सीखना चाहिए, हुनर अपनाना चाहिए, सब्र और इबादत में डटे रहना चाहिए और हमेशा अल्लाह पर भरोसा करना चाहिए।

इदरीस (अ.स.) की दावत और उनकी तालीम आज भी इंसानियत के लिए एक रहनुमाई है।


हज़रत आदम अलैहिस्सलाम.


हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) – इस्लामिक दृष्टिकोण से

इस्लामिक इतिहास में सबसे पहले नबी और सबसे पहले इंसान का नाम है हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम)। अल्लाह तआला ने इन्हें अपनी ख़ास क़ुदरत से पैदा किया और सारी इंसानियत को इनकी औलाद बनाया। क़ुरआन करीम और हदीस शरीफ़ में हज़रत आदम (अ.स.) का ज़िक्र विस्तार से मिलता है।

आदम (अ.स.) की पैदाइश

अल्लाह तआला ने जब इस दुनिया को बनाने का इरादा किया तो सबसे पहले फ़रिश्तों को बताया कि:

“मैं ज़मीन पर एक ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाने वाला हूँ।”
(क़ुरआन, सूरह बक़रः 30)

फ़रिश्तों ने हैरत से पूछा कि क्या आप ऐसे को बनाएँगे जो फ़साद करेगा और ख़ून बहाएगा? लेकिन अल्लाह तआला ने फ़रमाया: “मैं वो जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।”

इसके बाद अल्लाह ने मिट्टी से आदम (अ.स.) का ख़ाक़ा (ढाँचा) बनाया। फिर उसमें अपनी रूह फूँकी और आदम (अ.स.) ज़िन्दा हो गए। यही से इंसानियत का सिलसिला शुरू हुआ।

आदम (अ.स.) को इल्म (ज्ञान) दिया गया

अल्लाह तआला ने आदम (अ.स.) को तमाम चीज़ों के नाम और उनका इल्म सिखाया। यह अल्लाह की तरफ़ से एक बड़ा शरफ़ (सम्मान) था। जब फ़रिश्तों से पूछा गया कि इन चीज़ों के नाम बताओ तो वे न बता सके। फिर आदम (अ.स.) ने सभी नाम बताए। इस तरह अल्लाह ने दिखा दिया कि आदम (अ.स.) को इल्म की वजह से फ़रिश्तों पर फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) हासिल है।

फ़रिश्तों का सज्दा

अल्लाह तआला ने फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम (अ.स.) के सामने सज्दा करो। सब फ़रिश्तों ने सज्दा किया, लेकिन इब्लीस (शैतान) ने सज्दा करने से इंकार किया। उसका कहना था कि मैं आग से बना हूँ और आदम मिट्टी से बने हैं, इसलिए मैं बेहतर हूँ। घमंड और नाफ़रमानी की वजह से इब्लीस लानती और रद्द कर दिया गया।

जन्नत की ज़िन्दगी और इम्तिहान

अल्लाह तआला ने आदम (अ.स.) और उनकी पत्नी हव्वा (अ.स.) को जन्नत में रखा और कहा कि यहाँ आराम से रहो, हर नेमत का इस्तेमाल करो, मगर एक ख़ास दरख़्त (पेड़) के क़रीब मत जाना।

लेकिन शैतान ने धोखा देकर आदम और हव्वा को बहकाया। उसने कहा कि यह पेड़ अमर (हमेशा की ज़िन्दगी) और बादशाही का है। धोखे में आकर उन्होंने उस पेड़ का फल खा लिया। नतीजा यह हुआ कि अल्लाह तआला ने उन्हें जन्नत से नीचे ज़मीन पर उतार दिया।

तौबा और मग़फ़िरत

हालाँकि आदम (अ.स.) से ग़लती हुई, लेकिन उन्होंने फ़ौरन अल्लाह से तौबा की। क़ुरआन में आता है:

“हमने आदम को कुछ कलिमात सिखाए, उन्होंने उनसे दुआ की और अल्लाह ने उनकी तौबा क़ुबूल कर ली।”
(सूरह बक़रः 37)

इससे मालूम होता है कि इंसान ग़लती कर सकता है, लेकिन अल्लाह की रहमत बहुत बड़ी है।

आदम (अ.स.) की ज़िन्दगी

आदम (अ.स.) को अल्लाह ने नबूवत दी। वे अपने बेटों और क़ौम को अल्लाह की इबादत करने और नेक राह अपनाने की तालीम देते रहे।

उनके बेटों में हाबील (Abel) और क़ाबील (Cain) मशहूर हैं। क़ाबील ने अपने भाई हाबील की क़त्ल कर दिया, जो इंसानियत की पहली हत्या थी। इस घटना से यह सबक़ मिलता है कि इंसान के अंदर अगर नफ़्स (हवस और ग़ुस्सा) काबू में न हो, तो वह बड़ा गुनाह कर बैठता है।

इंसानियत के पहले नबी

हज़रत आदम (अ.स.) ही वह पहले इंसान हैं जिन्हें अल्लाह ने सीधे अपने हाथों से पैदा किया। इन्हें ही पहला नबी बनाया गया। सारी इंसानियत उन्हीं की औलाद है। क़ुरआन में उन्हें अबुल-बशर (यानी इंसानों का बाप) कहा गया है।

सबक़ (सीख)

हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) की ज़िन्दगी से हमें कई अहम सबक़ मिलते हैं:

  1. इल्म की अहमियत – इंसान को अल्लाह ने इल्म की वजह से इज़्ज़त दी।
  2. तकब्बुर (घमंड) की बुराई – शैतान सिर्फ़ घमंड की वजह से हमेशा के लिए रद्द कर दिया गया।
  3. ग़लती पर तौबा – इंसान ग़लती करता है, लेकिन तौबा से अल्लाह माफ़ कर देता है।
  4. इम्तिहान – जन्नत में भी आदम (अ.स.) को आज़माया गया, इससे पता चलता है कि दुनिया में इंसान हर हाल में इम्तिहान से गुज़रता है।
  5. नफ़्स पर क़ाबू – क़ाबील और हाबील की घटना से मालूम होता है कि ग़ुस्सा और हसद इंसान को बरबाद कर देता है।

वफ़ात (मौत)

रिवायतों के मुताबिक़ हज़रत आदम (अ.स.) ने लगभग 1000 साल ज़िन्दगी पाई। उनकी वफ़ात के बाद नबियों का सिलसिला जारी रहा और एक-एक करके इंसानियत को हिदायत मिलती रही।


निष्कर्ष

हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) इस्लाम के नज़रिए से पहले नबी और पहले इंसान हैं। उनकी ज़िन्दगी इंसान के लिए एक मिसाल है। उनसे हमें यह सिखने को मिलता है कि अल्लाह की इबादत, इल्म की क़द्र, ग़लती पर तौबा, और नफ़्स पर क़ाबू बहुत ज़रूरी है।.

निहावंद की जंग..


निहावंद की जंग (21 हिजरी / 642 ई.) : इस्लामी इतिहास की निर्णायक विजय

निहावंद की जंग इस्लामी इतिहास की उन निर्णायक लड़ाइयों में से एक है जिसने दुनिया की राजनीति और ताक़त का संतुलन बदल दिया। यह युद्ध 21 हिजरी (642 ईस्वी) में मुस्लिम सेना और फारसी सासानी साम्राज्य के बीच हुआ। इस जंग को “फ़त्हुल फुतूह” (सभी जीतों की जीत) भी कहा जाता है क्योंकि इसके बाद फारसी साम्राज्य हमेशा के लिए ढह गया।

इस युद्ध में मुख्य नेतृत्व अमीरुल मोमिनीन उमर बिन ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हाथों में था, हालांकि युद्धक्षेत्र में सेना की कमान प्रमुख सहाबा और सेनापतियों ने संभाली।


पृष्ठभूमि

पैगंबर मुहम्मद ﷺ के बाद इस्लामी राज्य का तेज़ी से विस्तार हो रहा था। खलीफ़ा अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) और फिर उमर बिन ख़त्ताब (रज़ि.) के दौर में मुसलमानों ने सीरिया, इराक और फारस के कई हिस्सों को जीत लिया था।

फारसी साम्राज्य, जो सदियों से शक्तिशाली था, लगातार हार का सामना कर रहा था। क़ादिसिया (635 ई.) और मदायन (637 ई.) की हार ने उसे कमजोर कर दिया था। लेकिन फारसी शासकों ने हार मानने के बजाय आखिरी कोशिश करने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी पूरी ताक़त इकट्ठा की और निहावंद नामक जगह पर एक बड़ी सेना खड़ी की।


मुस्लिम सेना की तैयारी

खलीफ़ा उमर (रज़ि.) ने जब फारस की नई साज़िश की खबर सुनी, तो उन्होंने मदीना से आदेश दिया कि मुसलमान दुश्मन का मुकाबला करें।

  • मुस्लिम सेना का नेतृत्व अनुभवी सहाबी नुअमान बिन मुक़रिन (रज़ि.) को दिया गया।
  • सेना की संख्या लगभग 30,000 थी।
  • दूसरी ओर, फारसी सेना बहुत बड़ी थी, कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनकी संख्या 1,20,000 से भी ज्यादा थी।

खलीफ़ा उमर (रज़ि.) स्वयं युद्धक्षेत्र में नहीं गए, लेकिन उन्होंने लगातार निर्देश और हौसला अफजाई की।


निहावंद का युद्धक्षेत्र

निहावंद, जो आज के ईरान में स्थित है, रणनीतिक रूप से बेहद अहम जगह थी। यह स्थान फारसी साम्राज्य के हृदय के करीब था। यदि मुसलमान यहाँ जीतते, तो पूरा फारस उनके हाथ में आ जाता।


युद्ध की शुरुआत

पहला चरण

फारसी सेना ने मजबूत किलेबंदी कर रखी थी। उन्होंने अपने किले के चारों ओर खाई और मजबूत दीवारें बनाई थीं। मुसलमानों ने पहले दुश्मन को बाहर लाने की रणनीति बनाई।

नुअमान बिन मुक़रिन (रज़ि.) ने सेना को कहा:
“हम सब अल्लाह की राह में लड़ रहे हैं। मौत या जीत – दोनों हमारी सफलता हैं।”

दूसरा चरण

मुस्लिम सेनापतियों ने छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बनाकर हमला शुरू किया। इससे फारसी सेना को किले से बाहर आना पड़ा। जैसे ही वे खुले मैदान में आए, मुसलमानों ने पूरी ताक़त से उन पर धावा बोल दिया।

निर्णायक क्षण

युद्ध के दौरान नुअमान बिन मुक़रिन (रज़ि.) शहीद हो गए, लेकिन उन्होंने मरने से पहले सेना को आदेश दिया कि किसी भी हाल में पीछे नहीं हटना है। उनके शहीद होने के बाद सेना की कमान उनके भाई ने संभाली।

मुसलमानों ने दुश्मन की भारी संख्या और हथियारों के बावजूद ईमान और हौसले से लड़ाई जारी रखी। अंततः फारसी सेना का मनोबल टूट गया और वे मैदान छोड़कर भागने लगे।


निहावंद की जंग का परिणाम

  1. फारसी साम्राज्य का पतन – यह जंग फारस के लिए अंतिम प्रहार साबित हुई। इसके बाद उनका शासन लगभग खत्म हो गया।
  2. इस्लामी राज्य का विस्तार – मुसलमानों ने ईरान के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया।
  3. मुसलमानों का मनोबल ऊँचा हुआ – कम संख्या के बावजूद बड़ी जीत ने मुसलमानों को आत्मविश्वास से भर दिया।
  4. फ़त्हुल फुतूह – इस जंग को यह उपाधि मिली क्योंकि इसने फारसी ताकत को जड़ से खत्म कर दिया।

निहावंद की जंग का महत्व

राजनीतिक महत्व

  • इस जंग ने फारस जैसे शक्तिशाली साम्राज्य को हमेशा के लिए गिरा दिया।
  • इस्लामी राज्य दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त के रूप में उभरा।

सैन्य महत्व

  • मुसलमानों ने बेहतरीन रणनीति का इस्तेमाल किया।
  • यह साबित हुआ कि केवल संख्या और हथियारों से जीत नहीं होती, बल्कि अनुशासन और विश्वास से बड़ी ताक़तों को हराया जा सकता है।

धार्मिक महत्व

  • मुसलमानों ने इसे अल्लाह की राह में जिहाद माना।
  • यह जंग इस बात का प्रमाण बनी कि ईमान की ताक़त भौतिक साधनों पर भारी होती है।

निष्कर्ष

निहावंद की जंग (21 हिजरी / 642 ई.) इस्लामी इतिहास का वह अध्याय है जिसने फारसी साम्राज्य का अंत कर दिया और इस्लाम की सीमाओं को मध्य एशिया और ईरान तक पहुँचा दिया।

उमर बिन ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के नेतृत्व और नुअमान बिन मुक़रिन (रज़ि.) की बहादुरी ने यह दिखा दिया कि सच्चे ईमान और एकता से कोई भी ताक़त मुसलमानों को हरा नहीं सकती।

आज भी निहावंद की जंग हमें यह सिखाती है कि एकजुट होकर, सही नेतृत्व में और विश्वास के सहारे असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।


क़ादिसिया की जंग..


क़ादिसिया की जंग: इस्लामी इतिहास की निर्णायक लड़ाई

क़ादिसिया की जंग इस्लामी इतिहास में एक बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक युद्ध माना जाता है। यह जंग 14 हिजरी (635 ई.) में अरब मुसलमानों और फारस (सासानी साम्राज्य) के बीच लड़ी गई थी। इस जंग ने न केवल फारसी साम्राज्य की शक्ति को कमजोर किया बल्कि इस्लाम की सीमाओं का विस्तार भी किया। इस जंग का नेतृत्व महान सहाबी साद बिन अबी वक़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने किया।


पृष्ठभूमि

पैगंबर मुहम्मद ﷺ के समय से ही इस्लाम तेजी से फैल रहा था। उनके निधन के बाद खलीफ़ा अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) और फिर खलीफ़ा उमर इब्न खत्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के दौर में इस्लामी राज्य की सीमाएँ अरब से बाहर बढ़ने लगीं।

फारस उस समय दुनिया का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। लेकिन अंदरूनी कलह, राजनीतिक अस्थिरता और लगातार होने वाले युद्धों ने उसे कमजोर कर दिया था। दूसरी ओर मुस्लिम सेनाएँ अपने ईमान, अनुशासन और बहादुरी के कारण मजबूत होती जा रही थीं।

खलीफ़ा उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फारस की ताकत को खत्म करने और इस्लाम का संदेश फैलाने के लिए सेना को भेजने का निर्णय लिया। इसके लिए साद बिन अबी वक़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) को सेनापति नियुक्त किया गया।


सेना की तैयारी

मुस्लिम सेना की संख्या लगभग 30,000 थी, जबकि फारसी सेना इससे कहीं ज्यादा, करीब 1,20,000 सैनिकों पर आधारित थी।
फारसी सेना का नेतृत्व रुस्तम नामक सेनापति कर रहा था, जो युद्ध कौशल और रणनीति में माहिर माना जाता था।

साद बिन अबी वक़ास (रज़ि.) बीमार थे और बिस्तर पर लेटे हुए भी सेना की कमान संभाल रहे थे। उन्होंने अपनी बहादुरी और ईमान की ताकत से सैनिकों का हौसला बढ़ाया।


क़ादिसिया का युद्धक्षेत्र

क़ादिसिया एक ऐसा इलाका था जो रणनीतिक रूप से बेहद अहम था। यह फारस की राजधानी मदायन (Ctesiphon) के करीब था। इस जगह पर लड़ाई का मतलब था कि अगर मुसलमान जीत गए तो फारस की राजधानी तक पहुँचने का रास्ता साफ हो जाएगा।


जंग की शुरुआत

पहला दिन

दोनों सेनाएँ आमने-सामने आईं। मुस्लिम सैनिक अल्लाह पर भरोसा करते हुए जंग में कूद पड़े। फारसी सेना ने हाथियों की टुकड़ी का इस्तेमाल किया, जिससे मुस्लिम घोड़ों में भगदड़ मच गई। लेकिन धीरे-धीरे मुसलमानों ने धैर्य और साहस से इसका सामना किया।

दूसरा और तीसरा दिन

जंग कई दिनों तक चली। हर दिन फारसी सेना ताकत और संख्या के बल पर मुसलमानों को दबाने की कोशिश करती, लेकिन मुसलमान अपनी एकता और ईमान के सहारे मजबूती से डटे रहते।

मुसलमानों ने फारसी हाथियों को कमजोर करने के लिए उनकी आँखों और पैरों पर हमला किया। इस रणनीति से फारसी सेना की ताकत टूटने लगी।

चौथा दिन (निर्णायक दिन)

चौथे दिन जंग निर्णायक मोड़ पर पहुँची। मुस्लिम सैनिकों ने पूरी ताकत से हमला किया। फारसी सेनापति रुस्तम इस दौरान मारा गया। उसके मरने के बाद फारसी सेना का मनोबल टूट गया और वे मैदान छोड़कर भागने लगे।


जंग का परिणाम

  1. फारसी सेना की हार: मुसलमानों ने भारी संख्या और हथियारों से लैस फारसी सेना को पराजित कर दिया।
  2. फारसी साम्राज्य का पतन: इस जंग के बाद फारस का बड़ा हिस्सा इस्लामी नियंत्रण में आ गया।
  3. मुसलमानों का मनोबल: यह जीत इस्लामिक इतिहास की सबसे बड़ी सैन्य सफलताओं में से एक थी।
  4. इस्लाम का विस्तार: क़ादिसिया की जीत ने ईरान, इराक और आस-पास के इलाकों में इस्लाम के प्रसार का रास्ता खोल दिया।

क़ादिसिया की जंग का महत्व

राजनीतिक महत्व

इस जंग ने अरब मुसलमानों को दुनिया की महाशक्ति बनने का मार्ग दिया। फारस जैसी ताकतवर साम्राज्य के पतन ने इस्लाम की शक्ति को साबित कर दिया।

सैन्य महत्व

यह जंग एक बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे कम संख्या में होने के बावजूद अनुशासन, रणनीति और ईमान से बड़ी से बड़ी ताकत को हराया जा सकता है।

धार्मिक महत्व

मुसलमानों ने इस जंग को सिर्फ़ भूमि और शक्ति प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि अल्लाह के संदेश को फैलाने और बगावत तथा जुल्म का अंत करने के लिए लड़ा।


निष्कर्ष

क़ादिसिया की जंग इस्लामी इतिहास का वह अध्याय है जिसने पूरी दुनिया की राजनीति और भूगोल बदल दिया। साद बिन अबी वक़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) की बहादुरी और नेतृत्व ने इस्लामी राज्य को नई ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया। इस जंग के बाद फारसी साम्राज्य का पतन होना शुरू हुआ और इस्लाम की रोशनी ईरान व मध्य एशिया तक फैल गई।

आज भी क़ादिसिया की जंग हमें यह सिखाती है कि ईमान, एकता और नेतृत्व की शक्ति से किसी भी बड़ी ताकत को हराया जा सकता है…


यमामा की जंग?

यमामा की जंग इस्लाम के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक है। यह जंग 11 हिजरी अर्थात् 632 ईस्वी में हुई थी। इस जंग का मुख्य कारण मदीना के बाहर कुछ बगावती लोगों का विद्रोह और इस्लाम से दूर हटना था। इस जंग में प्रमुख नेतृत्व सिद्दीक़ अक़बर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने किया, और खालिद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इसकी रणनीति और रणभूमि में अहम भूमिका निभाई।

पृष्ठभूमि

हिजरत मदीना के बाद, पैगंबर मुहम्मद ﷺ ने पूरे अरब में इस्लाम का संदेश फैलाया। उनके निधन के बाद, कुछ बगावती क़बीलों और जनों ने इस्लाम से अलग होने की कोशिश की। यमामा के लोग, जो मुख्यतः कुछ मुसलमानों के विरोधी और अपने नेताओं के प्रति वफादार थे, उन्होंने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया और मदीना से अलग होने का प्रयास किया। इसके कारण मुस्लिम समुदाय में बड़ा संकट उत्पन्न हो गया।

नेतृत्व

सिद्दीक़ अक़बर (रज़ियल्लाहु अन्हु), जो उस समय खलीफ़ा थे, ने इस स्थिति का समाधान करने के लिए सेना का नेतृत्व किया। उनके नेतृत्व में खालिद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) को कमांडर नियुक्त किया गया। खालिद बिन वलीद अपनी रणनीतिक कुशलता और साहस के लिए प्रसिद्ध थे। उनका अनुभव और युद्ध कौशल इस जंग में निर्णायक साबित हुआ।

जंग की तैयारी

सिद्दीक़ अक़बर और खालिद बिन वलीद ने पहले स्थिति का मूल्यांकन किया और फिर सेना को तैयार किया। सेना में प्रशिक्षित योद्धाओं को चुना गया और उन्हें यमामा की ओर भेजा गया। जंग में रणनीति और अनुशासन का विशेष ध्यान रखा गया। खालिद बिन वलीद ने अपने सैनिकों को मजबूत स्थिति में रखा और दुश्मन की चालों को भांपने के लिए गुप्त योजना बनाई।

यमामा की जंग की घटनाएँ

  • सेना यमामा पहुंची और देखा कि बगावती लोगों ने मजबूत किले और सुरक्षा उपाय तैयार किए हैं।
  • प्रारंभिक लड़ाई में दोनों पक्षों ने घात और रणनीति का उपयोग किया।
  • खालिद बिन वलीद ने सेना को दो हिस्सों में विभाजित किया ताकि दुश्मन के घेरे को तोड़ा जा सके।
  • कई मुसलमान योद्धा शहीद हुए।
  • सिद्दीक़ अक़बर और खालिद बिन वलीद ने अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाया और उन्हें निरंतर मार्गदर्शन दिया।

जंग का परिणाम

  • खालिद बिन वलीद की रणनीति और सिद्दीक़ अक़बर की नेतृत्व क्षमता के कारण मुस्लिम सेना विजयी हुई।
  • बगावती लोग परास्त हुए और यमामा फिर से मुस्लिम नियंत्रण में आ गया।
  • इस जंग ने पूरे अरब में इस्लाम के प्रति निष्ठा और सुरक्षा सुनिश्चित की।

यमामा की जंग का महत्व

सियासी महत्व:

  • इस जंग ने इस्लामिक राज्य की एकता को मजबूत किया और बगावत करने वालों को स्पष्ट संदेश दिया कि सामूहिक शक्ति के खिलाफ विद्रोह सफल नहीं होगा।

सैन्य महत्व:

  • खालिद बिन वलीद की रणनीति और सैन्य कौशल का उदाहरण।
  • मुस्लिम सेना ने युद्ध तकनीक और अनुशासन में अनुभव प्राप्त किया।

धार्मिक महत्व:

  • विश्वासियों के लिए उदाहरण कि इस्लाम के मार्ग पर स्थिर रहना और बगावत के खिलाफ खड़े होना आवश्यक है।

निष्कर्ष

यमामा की जंग इस्लामी इतिहास में निर्णायक मोड़ थी। सिद्दीक़ अक़बर (रज़ियल्लाहु अन्हु) और खालिद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के नेतृत्व में मुसलमानों ने अपने दुश्मनों को परास्त किया और इस्लाम की सुरक्षा सुनिश्चित की। यह जंग न केवल सैन्य दृष्टि से बल्कि राजनीतिक और धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण थी।

तक़दीर पर ईमान..


तक़दीर पर ईमान (Faith in Divine Decree / Predestination)

भूमिका

इस्लाम में ईमान के छः अरकान (Articles of Faith) में से अंतिम और बहुत अहम आधार है – तक़दीर पर ईमान
तक़दीर का अर्थ है – अल्लाह का ज्ञान और हुक्म, जो पहले से तय है। इसका मतलब यह नहीं कि इंसान का मेहनत बेकार है, बल्कि अल्लाह जानता है और तय करता है कि हर इंसान की ज़िन्दगी में क्या होगा।


तक़दीर का मतलब

तक़दीर (Qadar / Predestination) का अर्थ है:

  1. अल्लाह ने हर चीज़ का ज्ञान पहले से रखा है।
  2. दुनिया में हर घटना, छोटी-बड़ी, उसके हुक्म के तहत होती है।
  3. इंसान के अच्छे और बुरे कर्मों का ज्ञान अल्लाह के पास है।
  4. इस ज्ञान और हुक्म में इंसान की जिम्मेदारी और आज़ादी भी शामिल है।

कुरआन में कहा गया है:

“और अल्लाह ने हर चीज़ को पहले से तय कर रखा है।”
(सूरह अल-हदीद 57:22)


तक़दीर और इंसान की आज़ादी

कुछ लोग सोचते हैं कि तक़दीर का मतलब इंसान की मेहनत बेकार है। यह गलत है।

  • इंसान की आजादी है – वह सही या गलत काम चुन सकता है।
  • इंसान के चुनाव और उसके कर्म अल्लाह की निगरानी में हैं।
  • अल्लाह की तक़दीर का मतलब है कि वह पहले से जानता है कि इंसान क्या करेगा।
  • इंसान को जिम्मेदार ठहराया जाएगा उसके कर्मों के लिए।

कुरआन में आया:

“जो कोई नेक काम करेगा, उसका इनाम उसके लिए होगा और जो बुरा करेगा, उसकी सज़ा उसके लिए होगी।” (सूरह अल-इन्शिक़ाक़ 84:7-8)


तक़दीर के चार पहलू

  1. अल्लाह का इल्म (ज्ञान)
    • अल्लाह को सब कुछ पहले से पता है – इंसान का जन्म, मौत, सोच, और हर कर्म।
  2. अल्लाह का हुक्म
    • जो कुछ भी दुनिया में घटता है, वह अल्लाह के हुक्म और इरादे के तहत होता है।
  3. अल्लाह की रचना
    • हर इंसान की ताक़त, शरीर, बुद्धि, और परिस्थितियाँ अल्लाह ने बनाई हैं।
  4. अच्छा और बुरा
    • अल्लाह ने तय किया है कि नेक लोग इनाम पाएंगे और बुरे लोग सज़ा पाएंगे, लेकिन इंसान की कोशिश और चुनाव भी मायने रखते हैं।

तक़दीर पर ईमान का महत्व

  1. धैर्य और सुकून
    • मुसीबत और तकलीफ़ों में इंसान जानता है कि यह अल्लाह की मर्ज़ी से है और धैर्य रखता है।
  2. शुक्र और कृतज्ञता
    • अल्लाह की नेमतों और अच्छी चीज़ों के लिए इंसान शुक्र अदा करता है।
  3. कामयाबी के लिए प्रयास
    • इंसान अपनी मेहनत और नेक कोशिश करता है क्योंकि यह उसके कर्म हैं जो उसकी तक़दीर को सकारात्मक बना सकते हैं।
  4. गुनाह और गलतियों से बचाव
    • इंसान जानता है कि बुराई का हिसाब लिया जाएगा, इसलिए वह अच्छे कर्म करता है।

कुरआन और हदीस में तक़दीर

  • कुरआन में कहा गया: “अल्लाह जो कुछ देता है, वही सबसे अच्छा है और जो कुछ रोकता है, वही सबसे अच्छा है।” (सूरह अल-बीकरा 2:216)
  • हज़रत मुहम्मद ﷺ ने कहा: “हर इंसान का भाग्य उसके जन्म से पहले लिखा गया है, इसलिए अपने अच्छे कर्मों में मेहनत करो।”

तक़दीर पर ईमान रखने वाले की ज़िन्दगी

  1. धैर्यवान – परेशानियों में सब्र रखते हैं।
  2. शुक्रगुज़ार – अल्लाह की नेमतों के लिए हमेशा आभारी रहते हैं।
  3. सतर्क और मेहनती – बुराई और गुनाह से दूर रहते हैं।
  4. भरोसेमंद – जानकार होते हैं कि अल्लाह उनके लिए सबसे अच्छा सोचता है।

अगर कोई तक़दीर पर ईमान न लाए

  • अल्लाह का यह ज्ञान न मानने वाला इंसान अपने कर्मों का सही हिसाब नहीं समझ पाएगा।
  • उसका ईमान अधूरा होगा।
  • कुरआन में कहा गया है कि जो अल्लाह की तक़दीर को नकारे, वह बहुत दूर गुमराह है।

निष्कर्ष

तक़दीर पर ईमान इस्लाम के छः अरकान में से अंतिम आधार है।
यह इंसान को याद दिलाता है कि:

  • हर घटना अल्लाह के हुक्म के अनुसार होती है।
  • इंसान के कर्म मायने रखते हैं और उसका हिसाब लिया जाएगा।
  • दुनिया में धैर्य, मेहनत, शुक्र और नेक नीयत से जीवन जीना जरूरी है।

तक़दीर पर ईमान रखने वाला इंसान पूरी तरह अल्लाह पर भरोसा रखता है, मेहनत करता है और आख़िरत की तैयारी करता है।


क़यामत पर ईमान.


क़यामत पर ईमान (Faith in the Day of Judgment)

भूमिका

इस्लाम में ईमान के छः अरकान (Articles of Faith) में से एक बेहद अहम आधार है – क़यामत पर ईमान
क़यामत वह दिन है जब पूरी कायनात खत्म होगी और हर इंसान अपने किए गए अमाल का हिसाब देने के लिए अल्लाह के सामने खड़ा होगा। मुसलमान के लिए यह ईमान ज़रूरी है क्योंकि यही दिन इंसान के अच्छे और बुरे कामों का निर्णय तय करेगा।


क़यामत का अर्थ

क़यामत का मतलब है – संपूर्ण दुनिया और इंसानी जीवन का आख़िरी हिसाब

  • इस दिन सूर फूँका जाएगा और सब जीवित और मृत पुनः जीवित किए जाएंगे।
  • इंसानों के हर काम का लेखा-जोखा किया जाएगा।
  • नेक लोगों को जन्नत में प्रवेश मिलेगा और बुरे लोग सजा पाएंगे।

कुरआन मजीद में अल्लाह कहते हैं:

“और क़यामत का दिन आएगा, तभी हर आत्मा अपने किए गए कामों का पूरा हिसाब देगी।”
(सूरह अल-ज़िलज़ाल 99:7-8)


क़यामत के दिन क्या होगा?

कुरआन और हदीस में क़यामत के दिन के कई संकेत दिए गए हैं:

  1. सूर (नफ़्ख़-ए-सूर) फूँकना
    • फ़रिश्ता इस्राफ़ील (अ.स.) सूर फूँकेंगे।
    • पहली फूँक से सभी जीव मृत हो जाएंगे।
    • दूसरी फूँक से सभी जीवित होंगे।
  2. सभी का हिसाब
    • इंसान के अच्छे और बुरे कामों का लेखा-जोखा होगा।
    • नेक काम करने वालों के लिए जन्नत होगी।
    • बुरे काम करने वालों के लिए सज़ा होगी।
  3. किताब (अमाल का रिकॉर्ड)
    • हर इंसान के काम फ़रिश्तों द्वारा दर्ज किए गए होंगे।
    • कुरआन में कहा गया: “हम हर इंसान को उसकी किताब देंगे; उसे पढ़ना स्वयं उसके लिए आसान होगा।” (सूरह अल-इन्शिक़ाक़ 84:7-8)
  4. सुलूक और मापदंड
    • इंसान के अच्छे और बुरे कामों के आधार पर उसका मुक़ाम तय होगा।
    • नेक लोग माफी और जन्नत पाएंगे।
    • बुरे लोग सज़ा पाएंगे, लेकिन अल्लाह की रहमत भी सबसे बड़ी है।

क़यामत पर ईमान का मतलब

क़यामत पर ईमान रखने का अर्थ है:

  1. हर इंसान के कर्मों का हिसाब होगा – कोई भी काम अनदेखा नहीं रहेगा।
  2. अल्लाह न्याय करेगा – कोई अन्याय नहीं होगा।
  3. जन्नत और नर्क का यक़ीन – अच्छे कामों का इनाम और बुरे कामों की सज़ा निश्चित है।
  4. दुनिया में सही राह पर चलना – यह यक़ीन इंसान को बुराई से रोकता है और नेक काम करने के लिए प्रेरित करता है।

कुरआन में क़यामत पर ईमान की अहमियत

कुरआन मजीद में बार-बार कहा गया है कि जो इंसान क़यामत पर ईमान लाता है और अच्छे काम करता है, वही सही रास्ते पर है।

  • “जो लोग ईमान लाए और नेक काम किए, उनके लिए जन्नत है, जिसमें नहरें बहती हैं।” (सूरह बक़रा 2:25)
  • “जो अल्लाह और आख़िरत पर यक़ीन नहीं करता, उसके लिए दुखद अंजाम है।” (सूरह अल-ग़ाशियाह 88:21-25)

क़यामत पर ईमान क्यों ज़रूरी है?

  1. अच्छे और बुरे कामों का बोध
    • इंसान जानता है कि उसके हर काम का हिसाब होगा।
    • इसलिए वह बुराई से बचता है और नेक काम करता है।
  2. संसारिक जीवन का सही मकसद
    • दुनिया केवल खेल और मज़ाक़ नहीं है।
    • क़यामत का यक़ीन इंसान को याद दिलाता है कि जीवन अल्लाह की इबादत और नेक कामों के लिए है।
  3. अल्लाह पर भरोसा और धैर्य
    • कठिनाइयों और तकलीफ़ों में इंसान धैर्य रखता है क्योंकि जानता है कि अल्लाह हर इंसान को उसकी मेहनत का पूरा फल देगा।
  4. आख़िरत में नजात का भरोसा
    • नेक लोग इस यक़ीन के साथ अपने जीवन को अल्लाह की राह में सुधारते हैं।

अगर कोई क़यामत पर ईमान न लाए

जो इंसान क़यामत और हिसाब-किताब का इंकार करता है:

  • वह ईमान में कमी रखता है।
  • कुरआन में कहा गया है कि उसके लिए दुखद अंजाम है।
  • ऐसे इंसान की जिंदगी केवल सांसारिक फायदों तक सीमित हो जाती है और आख़िरत में उसका नुकसान निश्चित है।

निष्कर्ष

क़यामत पर ईमान इस्लाम के छः अरकान में से एक अहम आधार है। यह इंसान को यह याद दिलाता है कि हर काम का हिसाब होगा, नेकियों को इनाम मिलेगा और बुराइयों का नतीजा भुगतना पड़ेगा।
इस यक़ीन के साथ मुसलमान अपनी ज़िन्दगी अल्लाह की राह में सुधारता है, नेक काम करता है और दुनिया तथा आख़िरत में कामयाब होने की उम्मीद रखता है…

रसूलों पर ईमान.


रसूलों पर ईमान (Faith in the Prophets)

भूमिका.

इस्लाम में ईमान के छः अरकान (Articles of Faith) हैं। इनमें से एक अहम आधार है – रसूलों पर ईमान
इसका मतलब है कि मुसलमान यह विश्वास रखे कि अल्लाह ने इंसानों की हिदायत (मार्गदर्शन) के लिए अपने चुने हुए पैग़म्बरों और रसूलों को भेजा। सभी रसूलों का काम एक ही था – अल्लाह की इबादत का पैग़ाम देना और इंसानों को नेक रास्ता दिखाना।


रसूल और नबी में अंतर

  • नबी (Nabi) – वह इंसान जिसे अल्लाह ने संदेश दिया और लोगों को सही रास्ता दिखाने का काम सौंपा।
  • रसूल (Rasool) – वह नबी जिसे अल्लाह ने किताब या नया शरीअत देने का आदेश दिया।
  • यानी सभी रसूल नबी हैं, लेकिन सभी नबी रसूल नहीं होते।

सभी रसूलों का उद्देश्य

  1. अल्लाह की इबादत सिखाना – सिर्फ अल्लाह की पूजा करना।
  2. दुनिया और आख़िरत में भलाई – इंसानों को नेक रास्ता दिखाना।
  3. गुनाह और बुराई से रोकना – लोगों को सही और गलत की पहचान कराना।
  4. अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाना – किताबें और हिदायत देना।

प्रमुख रसूलों के नाम और कार्य

1. हज़रत आदम (अ.स.)

  • इंसानों के पहले नबी।
  • अल्लाह ने उन्हें और हव्वा (हव्वा अ.स.) को इस्लाम का पहला पैग़ाम दिया।

2. हज़रत नूह (अ.स.)

  • अपने कौम को अल्लाह के इबादत की हिदायत दी।
  • काफ़िरों की नासमझी और बुराई के कारण वह क़यामत जैसी बाढ़ से बच गए।

3. हज़रत इब्राहीम (अ.स.)

  • सिर्फ अल्लाह की इबादत का पैग़ाम फैलाया।
  • मूर्तिपूजा का विरोध किया।
  • अल्लाह के हुक्म से काबा का निर्माण किया।

4. हज़रत मूसा (अ.स.)

  • इस्राईलियों की हिदायत के लिए भेजे गए।
  • उन्हें तौरात दी गई।
  • फ़िरौन और उसके काफ़िरों से संघर्ष किया।

5. हज़रत ईसा (अ.स.)

  • इब्राहीमियों की उम्मत में भेजे गए।
  • इंजील नाज़िल हुई।
  • लोगों को अल्लाह की राह दिखाई और नेक काम करने का पैग़ाम दिया।

6. हज़रत मुहम्मद ﷺ

  • आख़िरी रसूल और नबी।
  • कुरआन मजीद उन्हें नाज़िल हुआ।
  • उन्होंने हर इंसान के लिए दीन का मुकम्मल पैग़ाम पहुँचाया।
  • उनका पैग़ाम आज भी पूरी दुनिया के लिए हिदायत है।

कुरआन में रसूलों पर ईमान की अहमियत

कुरआन मजीद में बार-बार कहा गया है कि जो इंसान रसूलों पर ईमान लाता है, वही सही राह पर है।

  • “जो लोग अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए और नेक काम किए, उन्हें अल्लाह ने उच्च दर्ज़ा दिया और जन्नत में प्रवेश दिलाया।” (सूरह निसा 4:69)
  • “हमने हर उम्मत में एक रसूल भेजा कि अल्लाह की इबादत करो और बुराई से बचो।” (सूरह अनबिया 21:25)

रसूलों पर ईमान क्यों ज़रूरी है?

  1. इंसान को सही मार्ग दिखाने के लिए – रसूलों के पैग़ाम के बिना इंसान भटक सकता है।
  2. क़यामत में नजात के लिए – रसूलों पर ईमान आख़िरी हिदायत मानने के लिए जरूरी है।
  3. अल्लाह की आज्ञा पालन करना – अल्लाह ने खुद कुरआन में कहा कि रसूलों की बात मानना अल्लाह की आज्ञा है।
  4. सच्चाई और ईमान की पहचान – हर रसूल ने इंसानों को यही सिखाया कि सिर्फ अल्लाह के लिए जीवन जियो।

अगर कोई रसूलों पर ईमान न लाए

  • जो इंसान रसूलों के पैग़ाम को नकारता है, वह इस्लाम से बाहर माना जाता है।
  • कुरआन में कहा गया है: “जो अल्लाह और उसके रसूलों का इंकार करे, उसके लिए दर्दनाक अज़ाब है।” (सूरह बक़रा 2:161)

निष्कर्ष

रसूलों पर ईमान इस्लाम का एक अहम आधार है। हर रसूल अल्लाह का संदेश लेकर आया और इंसानों को सही मार्ग दिखाया। मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वह सभी रसूलों के पैग़ाम को मानें और खासकर आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद ﷺ के पैग़ाम को अपनी ज़िन्दगी में उतारे।
रसूलों पर ईमान इंसान के ईमान को मुकम्मल बनाता है और उसे दुनिया और आख़िरत में कामयाबी दिलाता है।


अल्लाह की किताबों पर ईमान


अल्लाह की किताबों पर ईमान (Faith in the Divine Books)

भूमिका

इस्लाम में ईमान के छः अरकान (Articles of Faith) हैं। उनमें से एक अहम और बुनियादी आधार है – अल्लाह की किताबों पर ईमान
इसका मतलब है कि मुसलमान यह विश्वास रखे कि अल्लाह ने अपनी मख़लूक़ की हिदायत (मार्गदर्शन) के लिए अलग-अलग समय में अपने चुने हुए पैग़म्बरों पर आसमानी किताबें और सहीफ़े (पुस्तिकाएँ) नाज़िल कीं। इन किताबों में सबसे आख़िरी और मुकम्मल किताब है – कुरआन मजीद


अल्लाह की किताबों पर ईमान का मतलब

अल्लाह की किताबों पर ईमान लाने का अर्थ यह है कि:

  1. यह मानना कि अल्लाह ने अपने रसूलों पर किताबें नाज़िल कीं।
  2. हर किताब अपने ज़माने में हक़ (सत्य) और मार्गदर्शन थी।
  3. उन किताबों में अल्लाह का पैग़ाम और इंसानों के लिए सही राह थी।
  4. अब सभी किताबों में सबसे आख़िरी और सुरक्षित किताब कुरआन मजीद है, जो क़यामत तक बाक़ी रहेगी।

आसमानी किताबें और सहीफ़े

कुरआन और हदीस से हमें जिन आसमानी किताबों और सहीफ़ों की जानकारी मिलती है, उनमें मुख्य रूप से ये हैं:

1. तौरात (Torah)

  • अल्लाह ने यह किताब हज़रत मूसा (अ.स.) पर नाज़िल की।
  • यह बनी इस्राईल (यहूदियों) की हिदायत के लिए थी।
  • इसमें अल्लाह के हुक्म और शरीअत (धार्मिक क़ानून) दिए गए थे।

2. ज़बूर (Psalms)

  • अल्लाह ने यह किताब हज़रत दाऊद (अ.स.) पर नाज़िल की।
  • इसमें नसीहतें और अल्लाह की हम्द (प्रशंसा) के तराने थे।

3. इंजील (Gospel)

  • अल्लाह ने यह किताब हज़रत ईसा (अ.स.) पर नाज़िल की।
  • इसमें अल्लाह की रहमत और इंसानों के लिए मार्गदर्शन का पैग़ाम था।
  • बाद में इसके असली रूप में बहुत तब्दीली कर दी गई।

4. कुरआन मजीद (Qur’an)

  • अल्लाह की आख़िरी और मुकम्मल किताब।
  • हज़रत मुहम्मद ﷺ पर नाज़िल हुई।
  • इसमें हर ज़माने और हर इंसान के लिए हिदायत है।
  • कुरआन आज भी बिल्कुल उसी रूप में मौजूद है, जैसे 1400 साल पहले नाज़िल हुआ था।
  • अल्लाह ने वादा किया है: “हमने ही यह ज़िक्र (कुरआन) नाज़िल किया है और हम ही इसके हिफ़ाज़त करने वाले हैं।”
    (कुरआन – सूरह हिज्र 15:9)

5. सहीफ़े (Small Scrolls/Booklets)

  • हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और हज़रत मूसा (अ.स.) पर कुछ सहीफ़े (छोटी किताबें) भी नाज़िल की गईं।

कुरआन – आख़िरी और मुकम्मल किताब

कुरआन मजीद अल्लाह की सबसे आख़िरी किताब है। इसकी कुछ ख़ास बातें:

  1. यह मुकम्मल (Complete) है – इसमें दीन का पूरा कानून और इंसान की ज़िन्दगी के हर पहलू का मार्गदर्शन मौजूद है।
  2. यह सार्वभौमिक (Universal) है – यह सिर्फ अरबों या किसी एक कौम के लिए नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत के लिए है।
  3. यह महफ़ूज़ (Protected) है – इसमें कोई तब्दीली नहीं हो सकती।
  4. यह रहमत है – कुरआन इंसान के लिए हिदायत, रहमत और रोशनी है।
    • “यह किताब उस में कोई शक नहीं, हिदायत है परहेज़गारों के लिए।” (सूरह बक़रा 2:2)

किताबों पर ईमान की अहमियत

  1. अल्लाह की रहमत का एहसास – किताबें यह बताती हैं कि अल्लाह ने इंसान को अकेला नहीं छोड़ा, बल्कि उसकी हिदायत के लिए अपना पैग़ाम भेजा।
  2. सही-ग़लत का फर्क समझना – किताबों से इंसान को पता चलता है कि कौन-सा रास्ता सही है और कौन-सा ग़लत।
  3. आख़िरी हक़ीक़त को मानना – कुरआन को मानना और उस पर अमल करना ईमान की शर्त है।
  4. उम्मतों की कहानी – पिछली किताबों से हमें यह भी समझ आता है कि पहले की उम्मतें क्यों गुमराह हुईं और उनका अंजाम क्या हुआ।

अगर कोई अल्लाह की किताबों को न माने?

जो इंसान अल्लाह की किताबों का इंकार करता है, उसका ईमान पूरा नहीं माना जाएगा।
कुरआन कहता है:

“जो अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और आख़िरत के दिन का इंकार करे, वह बहुत दूर गुमराह हो गया।”
(सूरह निसा 4:136)


निष्कर्ष

अल्लाह की किताबों पर ईमान लाना हर मुसलमान के लिए अनिवार्य है। यह यक़ीन रखना कि अल्लाह ने अपनी मख़लूक़ की हिदायत के लिए आसमानी किताबें भेजीं, और अब कुरआन मजीद आख़िरी और मुकम्मल किताब है, जिस पर अमल करना हर मुसलमान का फ़र्ज़ है।
जो इंसान कुरआन को अपनी ज़िन्दगी की रहनुमाई बनाएगा, वही दुनिया और आख़िरत में कामयाब होगा।




फ़रिश्तों पर ईमान.


फ़रिश्तों पर ईमान (Faith in Angels in Islam)

भूमिका…….

इस्लाम में ईमान के छः अरकान (Articles of Faith) हैं। उनमें से एक अहम आधार है – फ़रिश्तों पर ईमान। मुसलमान के लिए यह ज़रूरी है कि वह अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर, उसके रसूलों पर, क़यामत के दिन पर और तक़दीर पर ईमान लाए।
फ़रिश्तों पर ईमान का मतलब है – दिल से मानना कि फ़रिश्ते हक़ (सच्चाई) हैं, अल्लाह ने उन्हें पैदा किया है और वे हमेशा अल्लाह के हुक्म के मुताबिक काम करते हैं।


फ़रिश्ते कौन हैं?

  • फ़रिश्ते अल्लाह की मख़लूक़ (सृष्टि) हैं।
  • उन्हें अल्लाह ने नूर (प्रकाश) से पैदा किया है।
  • वे अदृश्य (नज़र न आने वाले) हैं, लेकिन हर वक्त इंसान और दुनिया के कामों में अल्लाह के हुक्म से लगे रहते हैं।
  • फ़रिश्तों की कोई अपनी मर्ज़ी नहीं होती, वे वही करते हैं जो अल्लाह उन्हें हुक्म देता है।
  • कुरआन कहता है: “वे अल्लाह की नाफ़रमानी नहीं करते जिस चीज़ का हुक्म उन्हें दिया जाता है और वही करते हैं जो उन्हें हुक्म दिया जाता है।”
    (कुरआन – सूरह तहरीम 66:6)

फ़रिश्तों पर ईमान का मतलब

फ़रिश्तों पर ईमान का अर्थ यह है कि:

  1. यह मानना कि वे अल्लाह की सच्ची मख़लूक़ हैं।
  2. उनका काम सिर्फ अल्लाह की इबादत करना और उसके हुक्मों को पूरा करना है।
  3. उनके नाम, काम और ज़िम्मेदारियों पर यक़ीन रखना (जितना कुरआन और हदीस से साबित है)।
  4. यह विश्वास करना कि उनकी तादाद बहुत ज़्यादा है, जिन्हें सिर्फ अल्लाह जानता है।

अहम फ़रिश्तों के नाम और उनके काम

  1. हज़रत जिब्रील (अ.स.)
    • अल्लाह का कलाम (वही/पैग़ाम) नबियों तक पहुँचाना।
    • कुरआन मजीद भी जिब्रील (अ.स.) के ज़रिए नबी ﷺ तक पहुंचाया गया।
  2. हज़रत मीकाईल (अ.स.)
    • बारिश और रोज़ी की तक़सीम (वितरण) का काम।
    • ज़मीन पर जानदारों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए अल्लाह के हुक्म से ज़िम्मेदार।
  3. हज़रत इस्राफ़ील (अ.स.)
    • क़यामत के दिन सूर (नफ़्ख़-ए-सूर) फूंकने का काम करेंगे।
    • एक फूँक से सारी कायनात खत्म हो जाएगी, और दूसरी फूँक से सब लोग दोबारा ज़िंदा किए जाएंगे।
  4. हज़रत अज़्राईल (अ.स.) – मलिकुल मौत (मौत का फ़रिश्ता)
    • इंसानों की रूह क़ब्ज़ करना (जान लेना)।
  5. मुनकर और नक़ीर
    • कब्र में सवाल करने वाले फ़रिश्ते।
    • मरने के बाद हर इंसान से पूछेंगे – “तुम्हारा रब कौन है? तुम्हारा नबी कौन है? तुम्हारा दीन क्या है?”
  6. किरामन कातिबीन
    • हर इंसान के साथ दो फ़रिश्ते रहते हैं।
    • एक उसके नेक काम लिखता है, और दूसरा उसके गुनाह।
    • कुरआन कहता है: “जब इंसान कोई बात ज़ुबान से कहता है, तो उसके पास एक निगहबान (फ़रिश्ता) मौजूद होता है।” (सूरह क़ाफ़ 50:18)
  7. मलिक (जहन्नम का फ़रिश्ता)
    • जहन्नम (नर्क) का काम संभालते हैं।
  8. रज़वान (जन्नत का फ़रिश्ता)
    • जन्नत के दरवाज़ों के रखवाले हैं।

फ़रिश्तों की खूबियाँ

  • वे अल्लाह की लगातार तस्बीह (महिमा) करते रहते हैं।
  • उन्हें भूख, प्यास, नींद या थकान नहीं होती।
  • वे गुनाह नहीं करते।
  • उनकी गिनती इतनी ज़्यादा है कि इंसान उसका अंदाज़ा नहीं लगा सकता।
    • हदीस में आता है कि बैतुल-मआमूर (आसमान में काबा जैसा घर) में रोज़ 70,000 फ़रिश्ते तवाफ़ करते हैं और फिर कभी उनकी बारी दोबारा नहीं आती।

फ़रिश्तों पर ईमान की अहमियत

  1. अल्लाह की ताक़त और हिकमत को समझना – इतनी बड़ी मख़लूक़ सिर्फ अल्लाह की हुक्मबरदार है।
  2. इंसान के अंदर ज़िम्मेदारी का एहसास – जब इंसान जानता है कि उसके हर अमल को फ़रिश्ते लिख रहे हैं, तो वह गुनाह से बचने की कोशिश करता है।
  3. आख़िरत पर यक़ीन मज़बूत करना – कब्र में सवाल-जवाब और क़यामत के दिन के हालात फ़रिश्तों से जुड़े हुए हैं।
  4. अल्लाह की इबादत में लुत्फ़ – जब इंसान जानता है कि फ़रिश्ते भी लगातार इबादत कर रहे हैं, तो उसका दिल भी अल्लाह की याद में झुकता है।

अगर कोई फ़रिश्तों को न माने?

जो इंसान फ़रिश्तों का इंकार करे, वह इस्लाम से बाहर हो जाता है।
कुरआन में साफ़ तौर पर कहा गया है:

“जो अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों और आख़िरत के दिन का इनकार करे, वह गुमराह हो गया।”
(कुरआन – सूरह निसा 4:136)


निष्कर्ष

फ़रिश्तों पर ईमान इस्लाम की बुनियाद का हिस्सा है। वे अदृश्य हैं, लेकिन उनका वजूद हक़ है। उनका काम सिर्फ अल्लाह के हुक्म को पूरा करना है। मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह कुरआन और हदीस में बताए गए मुताबिक़ फ़रिश्तों पर ईमान लाए और इस यक़ीन के साथ ज़िन्दगी गुज़ारे कि उसके हर अच्छे-बुरे काम को फ़रिश्ते लिख रहे हैं और एक दिन अल्लाह के सामने उसका हिसाब होगा।