हज़रत रुकय्या बिन्ते मुहम्मद (रज़ियल्लाहु अन्हा)..

हज़रत रुक़ैय्या बिंत रसूल अल्लाहरुक़ैय्या नाम, रसूल-ए-करीम हज़रत मोहम्मद (सल्ल.) की दूसरी सहाजी (बेटी) थीं। इनकी मां हज़रत सैयदा खदीजा (र.अ.) थीं। रुक़ैय्या की शादी अबू लहब के बेटे ‘उत्बा’ से हुई थी, लेकिन जब इस्लाम आया तो अबू लहब और उसकी पत्नी ने रसूल (सल्ल.) के खिलाफ दुश्मनी दिखाई और अपने बेटे से हुक्म दिलवाया कि वह रुक़ैय्या से अलग हो जाए।इसके बाद, हज़रत उस्मान बिन अफ्फान (र.अ.) से इनका निकाह हुआ। उन्होंने रुक़ैय्या से बहुत मोहब्बत की, और उनके साथ बहुत नेक सुलूक किया।जब मुसलमानों पर मक्का में बहुत जुल्म हुआ, तो रसूल (सल्ल.) ने हिजरत (मक्के से निकलने) की इजाजत दे दी।

जन्म: नबूवत से कुछ साल पहले
शौहर: हज़रत उस्मान बिन अफ़्फ़ान (रज़ियल्लाहु अन्हु)

रुकय्या (र.अ.) बहुत ख़ूबसूरत और नर्म दिल औरत थीं।
जब मक्का में मुसलमानों पर अत्याचार हुआ, तो उन्होंने और उनके शौहर उस्मान (र.अ.) ने हिजरत-ए-हबशा (अबिसीनिया) की — यानी वह पहली मुसलमान औरतों में से थीं जिन्होंने इस्लाम के लिए घर छोड़ा।

मदीना लौटने के बाद जब ग़ज़वा-ए-बद्र हुआ, उस वक्त वह बीमार थीं और उनका इंतिक़ाल हो गया।
रसूलुल्लाह ﷺ ने खुद उनकी क़ब्र में उतरकर दफ़न किया।

सबक़: उन्होंने इस्लाम के लिए कुर्बानी और सब्र का बेहतरीन नमूना पेश किया।

हज़रत उस्मान और हज़रत रुक़ैय्या ने भी हिजरत की। रसूल (सल्ल.) ने फरमाया:”इब्राहीम और लूत (अ.) के बाद उस्मान पहले व्यक्ति हैं, जो अपनी पत्नी को लेकर ख़ुदा की राह में हिजरत कर रहे हैं।”

जब हज़रत उस्मान (रज़ि.) और हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) वापस आए तो देखा कि अपना सामान उनसे पहले ही भेज चुके थे। इस पर भी मक्का में ज्यादा दिन नहीं रुके। जब मदीना पहुंचे, तो वहां रसूलुल्लाह (सल्ल.) की खुशी की कोई सीमा न रही और आपने अपनी बेटी को अपने घर में रखा।हिजरत के कुछ महीने के बाद हज़रत उस्मान (रज़ि.) की सेवा में रहते हुए हज़रत रुकैय्या बीमार हो गईं। उस समय जब मुसलमानों पर बद्र की जंग के लिए निकलने का वक्त आया, तो रसूलुल्लाह (सल्ल.) ने हज़रत उस्मान (रज़ि.) को हुक्म दिया कि अपनी बीवी की सेवा करें और बद्र की जंग में शामिल न हों। जब जंग खत्म हुई और मुसलमान (विजयी हो गए) तो मदीना लौटते वक्त मस्जिदे-नबी के करीब हज़रत उस्मान (रज़ि.) की तरफ से मातम सुनाई दिया। पता चला कि हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) का इंतकाल हो गया।आपकी वफात रसूलुल्लाह (सल्ल.) की हयात-ए-मुबारक़ में ही हुई। जब आपकी दफ्न की (कब्र) की तैयारी हो रही थी, उस वक्त रसूलुल्लाह (सल्ल.) की आंखों में आंसू थे और आप बहुत दुखी थे। इसके बाद पुरानी साथी हज़रत सईदा उम्मे कुलसुम (रज़ि.) को हज़रत उस्मान (रज़ि.) के निकाह में दिया गया। इसलिए हज़रत उस्मान को ‘जुन्नैन’ (दो नूरों वाला) कहा जाता है। फिर जब हज़रत उस्मान और हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) वापस आए तो उन्होंने देखा कि अपना सामान वगैरह पहले ही मदीने भिजवा चुके थे। जाड़े का मौसम था, जब दोनों वहां पहुंचे, तो रसूलुल्लाह (स.अ.व.) को जान से ज्यादा खुशी हुई। आपने अपनी बेटी की तकलीफ और बीमारी देखकर बहुत जोर से प्यार और दया दिखाई। हज़रत उस्मान और हज़रत रुकैय्या, दोनों ने मदीने में बखूबी हिजरत की, और वहां के मुसलमानों और मुआजिरों में बहुत आसानियां मिलीं।लेकिन जब जंग-ए-बदर का वक्त आया, तो हज़रत उस्मान (रज़ि.) को रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने हुक्म दिया कि वह बीबी की बीमारी की वजह से बद्र में न जाएं और अपनी बीमार बीवी की खिदमत करें। जब जंग-ए-बदर में मुसलमान फतह याब हुए (जीत गए) और मदीना लौटे, तो उस वक्त हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) का इंतकाल हो चुका था। उनकी वफात की खबर सुनकर रसूलुल्लाह (स.अ.व.) की आंखों में आंसू आ गए। आपने बहुत दुख का इज़हार किया।आपकी वफात के बाद, हज़रत उस्मान (रज़ि.) को हज़रत उम्मे कुलसुम (रज़ि.) के साथ निकाह के लिए रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने इजाजत दी। इस वजह से हज़रत उस्मान (रज़ि.) को ‘जुन्नैन’ (दो नूरों वाला) का लकीब मिला।हज़रत रुकैय्या (रज़ि.) की कब्र मदीना मुनव्वरा में हज़रत सैय्यदा आयशा (रज़ि.) की मां, उम्मे रुमान (रज़ि.) के बगल में जन्नतुल बकी में बनी हुई है।”

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