निहावंद की जंग..


निहावंद की जंग (21 हिजरी / 642 ई.) : इस्लामी इतिहास की निर्णायक विजय

निहावंद की जंग इस्लामी इतिहास की उन निर्णायक लड़ाइयों में से एक है जिसने दुनिया की राजनीति और ताक़त का संतुलन बदल दिया। यह युद्ध 21 हिजरी (642 ईस्वी) में मुस्लिम सेना और फारसी सासानी साम्राज्य के बीच हुआ। इस जंग को “फ़त्हुल फुतूह” (सभी जीतों की जीत) भी कहा जाता है क्योंकि इसके बाद फारसी साम्राज्य हमेशा के लिए ढह गया।

इस युद्ध में मुख्य नेतृत्व अमीरुल मोमिनीन उमर बिन ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हाथों में था, हालांकि युद्धक्षेत्र में सेना की कमान प्रमुख सहाबा और सेनापतियों ने संभाली।


पृष्ठभूमि

पैगंबर मुहम्मद ﷺ के बाद इस्लामी राज्य का तेज़ी से विस्तार हो रहा था। खलीफ़ा अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) और फिर उमर बिन ख़त्ताब (रज़ि.) के दौर में मुसलमानों ने सीरिया, इराक और फारस के कई हिस्सों को जीत लिया था।

फारसी साम्राज्य, जो सदियों से शक्तिशाली था, लगातार हार का सामना कर रहा था। क़ादिसिया (635 ई.) और मदायन (637 ई.) की हार ने उसे कमजोर कर दिया था। लेकिन फारसी शासकों ने हार मानने के बजाय आखिरी कोशिश करने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी पूरी ताक़त इकट्ठा की और निहावंद नामक जगह पर एक बड़ी सेना खड़ी की।


मुस्लिम सेना की तैयारी

खलीफ़ा उमर (रज़ि.) ने जब फारस की नई साज़िश की खबर सुनी, तो उन्होंने मदीना से आदेश दिया कि मुसलमान दुश्मन का मुकाबला करें।

  • मुस्लिम सेना का नेतृत्व अनुभवी सहाबी नुअमान बिन मुक़रिन (रज़ि.) को दिया गया।
  • सेना की संख्या लगभग 30,000 थी।
  • दूसरी ओर, फारसी सेना बहुत बड़ी थी, कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनकी संख्या 1,20,000 से भी ज्यादा थी।

खलीफ़ा उमर (रज़ि.) स्वयं युद्धक्षेत्र में नहीं गए, लेकिन उन्होंने लगातार निर्देश और हौसला अफजाई की।


निहावंद का युद्धक्षेत्र

निहावंद, जो आज के ईरान में स्थित है, रणनीतिक रूप से बेहद अहम जगह थी। यह स्थान फारसी साम्राज्य के हृदय के करीब था। यदि मुसलमान यहाँ जीतते, तो पूरा फारस उनके हाथ में आ जाता।


युद्ध की शुरुआत

पहला चरण

फारसी सेना ने मजबूत किलेबंदी कर रखी थी। उन्होंने अपने किले के चारों ओर खाई और मजबूत दीवारें बनाई थीं। मुसलमानों ने पहले दुश्मन को बाहर लाने की रणनीति बनाई।

नुअमान बिन मुक़रिन (रज़ि.) ने सेना को कहा:
“हम सब अल्लाह की राह में लड़ रहे हैं। मौत या जीत – दोनों हमारी सफलता हैं।”

दूसरा चरण

मुस्लिम सेनापतियों ने छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बनाकर हमला शुरू किया। इससे फारसी सेना को किले से बाहर आना पड़ा। जैसे ही वे खुले मैदान में आए, मुसलमानों ने पूरी ताक़त से उन पर धावा बोल दिया।

निर्णायक क्षण

युद्ध के दौरान नुअमान बिन मुक़रिन (रज़ि.) शहीद हो गए, लेकिन उन्होंने मरने से पहले सेना को आदेश दिया कि किसी भी हाल में पीछे नहीं हटना है। उनके शहीद होने के बाद सेना की कमान उनके भाई ने संभाली।

मुसलमानों ने दुश्मन की भारी संख्या और हथियारों के बावजूद ईमान और हौसले से लड़ाई जारी रखी। अंततः फारसी सेना का मनोबल टूट गया और वे मैदान छोड़कर भागने लगे।


निहावंद की जंग का परिणाम

  1. फारसी साम्राज्य का पतन – यह जंग फारस के लिए अंतिम प्रहार साबित हुई। इसके बाद उनका शासन लगभग खत्म हो गया।
  2. इस्लामी राज्य का विस्तार – मुसलमानों ने ईरान के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया।
  3. मुसलमानों का मनोबल ऊँचा हुआ – कम संख्या के बावजूद बड़ी जीत ने मुसलमानों को आत्मविश्वास से भर दिया।
  4. फ़त्हुल फुतूह – इस जंग को यह उपाधि मिली क्योंकि इसने फारसी ताकत को जड़ से खत्म कर दिया।

निहावंद की जंग का महत्व

राजनीतिक महत्व

  • इस जंग ने फारस जैसे शक्तिशाली साम्राज्य को हमेशा के लिए गिरा दिया।
  • इस्लामी राज्य दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त के रूप में उभरा।

सैन्य महत्व

  • मुसलमानों ने बेहतरीन रणनीति का इस्तेमाल किया।
  • यह साबित हुआ कि केवल संख्या और हथियारों से जीत नहीं होती, बल्कि अनुशासन और विश्वास से बड़ी ताक़तों को हराया जा सकता है।

धार्मिक महत्व

  • मुसलमानों ने इसे अल्लाह की राह में जिहाद माना।
  • यह जंग इस बात का प्रमाण बनी कि ईमान की ताक़त भौतिक साधनों पर भारी होती है।

निष्कर्ष

निहावंद की जंग (21 हिजरी / 642 ई.) इस्लामी इतिहास का वह अध्याय है जिसने फारसी साम्राज्य का अंत कर दिया और इस्लाम की सीमाओं को मध्य एशिया और ईरान तक पहुँचा दिया।

उमर बिन ख़त्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) के नेतृत्व और नुअमान बिन मुक़रिन (रज़ि.) की बहादुरी ने यह दिखा दिया कि सच्चे ईमान और एकता से कोई भी ताक़त मुसलमानों को हरा नहीं सकती।

आज भी निहावंद की जंग हमें यह सिखाती है कि एकजुट होकर, सही नेतृत्व में और विश्वास के सहारे असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।


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